पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Friday, May 20, 2011

 ऋषि प्रसाद पुस्तक से - Rishi Prasad pustak se
आत्मयोग - Atmayog

(वेदान्तनिष्ठ अनुभवनिष्ठ ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की आप्तवाणी.... जिज्ञासु मुमुक्षु साधकों के लिए आध्यात्मिक टॉनिक..... नित्य निरन्तर सेवन करने से साधक के चिन्मयवपु को परिपुष्ट करके अन्तरतम को आलोकित करने वाली दिव्य ज्योति.....)
निर्भयता, जीवन्मुक्ति, साम्राज्य, स्वराज्य सिवाय उस पुरुष के, जो अपने आप को संशयरहित होकर पूर्णब्रह्म शुद्ध सच्चिदानन्द, नित्यमुक्त, जानता है और किसी को कभी भी नहीं नसीब होते। जो सर्वत्र अपने ही स्वरूप को देखता है वह क्यों हिलेगा ? उसका दिल एक आत्मदेव बिना कुछ और देखता ही नहीं। चाहे तारे टूट पड़ें, समुद्र जल उठे, हिमालय उड़ता फिरे, सूर्य मारे ठंड के बर्फ को गोला बन जाय – आत्मदर्शी ज्ञानवान को इससे क्या हैरानी हो सकेगी ? उसकी आज्ञा के बाहर कुछ भी नहीं हो सकता।
जो यहाँ नानात्व देखता है वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है। ओ प्यारे ! मेरे अपने आप ! द्वेषातुर मूर्ख ! जितना औरों को चने चबवाना चाहता है उतना अपने आप को ब्रह्मध्यान की खांड खीर खिला। वैरी का वैरीपन एकदम उड़ न जाय तो बात नहीं। जो तुम्हारे अन्दर है वही सब के अन्दर है।

किसी ने कहाः 'लोग तुम्हें यह कहते हैं, वह कहते हैं।' ओ भोले महेश ! तू इन बातों से अपने हृदय में व्यंग मत पड़ने दे। तू एक न मान। ब्रह्म बिना दृश्य कभी हुआ ही नहीं। चित्त में त्याग और ब्रह्मानन्द को भर कर देख ! सब बलायें आँख खोलते खोलते सात समुद्रों पार न बह जायें तो मुझको समुद्र में डुबो देना।
सर्वात्म दृष्टि हो जाय तो रोग, दुःख और मौत पास नहीं फटक सकते।
प्रतीयमान वैरी, विरोधी, निन्दक लोगों को क्षमा करते हम इतनी देर भी न लगायें जितना श्री गंगा जी तिनकों को बहा ले जाने में लगाती है या आलोक की किरणें अन्धकार को हटाने में लगाती हैं।
अहाहाहा....! अच्छे-बुरे पुरुषों में से जब हमारी जीवदृष्टि उठ जाय और उनको ब्रह्मरूपी समुद्र की लहरें जान लें तो राग-द्वेष की अग्नि बुझ जायगी।
जब मनुष्य और पदार्थ सचमुच अपना ही रूप जाने गये तो यह धड़का कैसे हो कि अमुक पुरुष न जाने मुझे क्या कहता होगा ?
शरीर आदि की पीड़ा, सम्बन्ध, लोगों की ईर्ष्या, द्वेष, सेवा, सम्मान से मुझे क्या ? कोई बुरा कहे, कोई भला कहे, मैं एक नहीं मानूँगा, मुझ में कोई पीड़ा नहीं, कोई शोक नहीं, ईर्ष्या नहीं, रोग नहीं, जन्म नहीं, मरण नहीं।
भयंकर भावी की भनक पाकर बगुले की तरह गर्दन उठाकर घबड़ाकर 'कें... कें....' क्यों करने लगा ? आनन्द से बैठ मेरे यार ! वहाँ कोई और नहीं है। तेरा ही परम पिता बल्कि आत्मदेव है।
छोड़ दो शरीर की चिन्ता को। मत रखो किसी की आस। परे फेंको कामना-वासना को। एक आत्मदृष्टि को दृढ़ रखो। तुम्हारी खातिर सब के सब देवता लोहे के चने भी चबा लेंगे।
जब देखो कि चिन्ता, क्रोध, काम घेरने लगे हैं तो चुपके से उठकर जल के पास चले जाओ। आचमन करो, हाथ-मुँह धोओ या स्नान ही कर लो। अवश्य शान्ति आ जायेगी। हरिध्यान रूपी क्षीरसागर में डुबकी लगाओ। क्रोध के धुएँ और भाप को ज्ञान रूपी अग्नि में बदल दो।
हे प्रभो ! अब तो मुझ से दो दो बातें नहीं निभ सकतीं। खाने, पीने, कपड़े-कुटिया का भी ख्याल रखूँ और दुलारे का भी मुख देखूँ ! चूल्हे में पड़े खाना-पहनना, जीना-मरना। क्या इनसे मेरा निर्वाह होता है ?
मैं तो इन बुद्धियों का प्रेरक आत्मदेव हूँ, मैं तो वही हूँ जिसका तेज-सूर्य-चन्द्रमा में चमक रहा है।
जब सर्व देश आत्मा में पाने लगे तो परोक्ष क्या रहा और स्थान सम्बन्धी चिन्ता क्यों कर उठे ? जब सर्व काल में अपने को देखा तो कल परसों आदि की फिकर कहाँ रही ?
हम सब में एक ही आत्मा व्यापक है, हम एक ही समुद्र की तरंगे हैं।
शरीर तो मैं नहीं हूँ। मैं वह हूँ जिसका अन्त वेद भी नहीं पा सकते।
जिसको इस बात का विश्वास है कि मेरे भीतर आत्मा विद्यमान है तो फिर वह कौन सी ग्रन्थि है जो खुल नहीं सकती ? फिर कोई शक्ति ऐसी नहीं जो मेरे विरूद्ध हो सके। जब मैं ही मैं हूँ तो मैं सबका स्वामी हूँ और जो चाहूँ सो कर सकता हूँ।
अगर कोई बीमारी हो जायगी तो केवल विचारशक्ति से उसको भगा देंगे। यह शक्ति यकीन है, यही विश्वास है।
श्रेय या फर्ज तो कहते हैं – दे दो त्याग, लेकिन प्रेय या गर्ज तरगीन देती हैः ले लो, यह हमारा हक है, अधिकार है। दुनियाँ में अपने अधिकार पर जोर देना सुगम है किन्तु अपने फर्ज को पूरा करने पर जोर देते चले जायें तो हमारे अधिकार हमारे पास स्वयं आयेंगे।
अगर सब कुछ कहीं बाहर ही के प्रारब्ध से होता तो शास्त्र विधि-निषेध के वाक्यों को जगह नहीं देते।
चर्मचक्षु से दृश्यमान जगत को भूलकर ब्रह्म में मग्न होना यही उपासना है।
समदृष्टि तब होगी जब लोगों में भलाई-बुराई की भावना उठ जायगी। समदृष्टि होने से सम-धी और समाधि होगी।
जब तुम दिल के मक्कर छोड़कर सीधे हो जाओ तो तुम्हारे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल उसी दम सीधे हो जायेंगे।
जब लोग चर्म की तरह आकाश को लपेट सकेंगे तब आत्मदेव को जाने बिना दुःख का अन्त हो सकेगा।
जो यह देखता है कि 'यह सब कुछ आत्मा है' वह न मृत्यु को देखता है न रोग को और न दुःख ही को। ऐसा दिखने वाला सब वस्तुओं को देखता है और सब प्रकार से सब वस्तुओं को प्राप्त होता है।
मनुष्यों द्वारा की हुई निन्दा प्रशंसा में विश्वास मत करो। ये सब चीजें गुमराह करती हैं और धोखा देती हैं।
भजन करते समय निर्लज्ज चित्त में मकान के, अपने मान के, अपनी जान के ध्यान आ जाते हैं। मूर्ख को इतनी समझ नही कि ये चीजें चिन्तन के योग्य नहीं हैं। चिन्तन योग्य तो एक प्रभु हैं।
ब्राह्मणत्व उसको परे हटा देता है जो आत्मा से इतर ब्राह्मणत्व को जानता है। क्षत्रियत्व उसको परे हटा देता है जो आत्मा से अन्यत्र क्षत्रियत्व को जानता है। लोक उसे परे हटा देते हैं जो आत्मा से इतर लोकों को जानता है। देवता उसको परे हटा देते हैं जो आत्मा से अन्यत्र देवताओं को जानता है। वेद उसको परे हटा देते हैं जो आत्मा से अन्यत्र वेदों को जानता है। प्रत्येक वस्तु उसे परे हटा देती है जो प्रत्येक वस्तु को आत्मा से अन्यत्र जानता है। प्राणी उसे परे हटा देते हैं अर्थात् दुत्कार देते हैं जो प्राणियों को आत्मा से अन्यत्र जानता है।
यह ब्राह्मणत्व, यह क्षत्रियत्व, ये लोक, ये देव, ये प्राणी, ये सब वही हैं जो कि यह आत्मा है।
भाई ! समाधि और मन की एकाग्रता तो तब होगी जब तुम्हारी तरफ से माल, धन, बंगले, मकान पर मानों हल फिर जाय ! स्त्री, पुत्र, वैरी, मित्र पर सुहागा चल जाय, सब साफ हो जाय, राम ही राम का तूफान आ जाय, कोठे दालान सब बहा ले जाय।
जो भी शिव की उपासना करते हैं वे धनवान हो जाते हैं और लक्ष्मीपति विष्णु के उपासक निर्धन रह जाते हैं। अभिप्राय यह है कि जिन लोगों के हृदय में शिवरूपी त्याग वैराग्य बसा है, उनके पास ऐश्वर्य, धन, सौभाग्य स्वयं आते हैं और जिन लोगों के अन्तःकरण लक्ष्मी, धन, दौलत में मोहित हैं वे दारिद्रय के पात्र रहते हैं।
मैं सब कुछ कर सकता हूँ, ऐसा उच्च विचार, निरन्तर उद्योग और धैर्य रखना चाहिए।
आँखों वाला केवल वही है, जिसकी दृष्टि बाह्य जगत को चीर कर पदार्थों की स्थिरता पर न जम कर और लोगों की धमकी या प्रशंसा को काटकर एक तत्त्व पर जमी रहती है।
ऐ दिल ! तू अपना परदा आप है। बीच से उठ जा। धीर पुरुष इस संसार से मुँह मोड़कर अमृत को पाते हैं।
परिस्थितियों के कुहरे और बादल को अपने ऊपर क्यों छाने देते हो  ? क्या तुम सूर्यों के सूर्य नहीं हो ? क्या तुम इस ब्रह्मांड के स्वामी नहीं हो ?
मुझमें यह भावना भरी हुई थी कि न मैं शरीर हूँ, न मन हूँ। मैं तो साक्षात ब्रह्म हूँ। कोई आग मुझे जला नहीं सकती, कोई अस्त्र मुझे मार नहीं सकता। सर्वशक्तिमान परमात्मा मैं ही हूँ, अनन्त ब्रह्म मैं ही हूँ।
बाहर की चीजों में विश्वास करोगे तो तुम असफल रहोगे। यही नियम है।
जब हम दूसरों पर निर्भर रहते हैं, दूसरों के भरोसे रहते हैं तो हम अपनी आत्मिक शक्ति खो देते हैं। जब हम अपनी आत्मा में विश्वास करते हैं और आत्मा के अतिरिक्त किसी दूसरी चीज में विश्वास नहीं करते तब सम्पदायें हमारे पास आती हैं।
अपने आपको ब्रह्म समझो और तुम ब्रह्म हो। अपने आपको मुक्त समझो और तुम उसी क्षण मुक्त हो।
निश्चय समझो कि यदि तुम अपने ऊपर भरोसा रख सकते हो तो कहीं भी सफलता पाओगे, तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।
सब कान मेरे कान, सब नेत्र मेरे नेत्र, सब हाथ मेरे हाथ, सब मन मेरे मन। मैंने मौत निगल ली, सब भेद मैं पी गया। कैसा तरो ताजा, अच्छा और बलवान मैं हो गया।
जब हम जान लेते हैं कि आत्मा केवल एक ही तब विभिन्न नामों से जितनी शक्लें-सूरतें दिखाई देती हैं वे सब हमारी वही वास्तविक आत्मा है। अन्यथा शीशमहल के कुत्ते के समान दशा होती है। हमें हमेशा डर लगा रहता है कि यह हमको धोखा देगा, वह हानि पहुँचायेगा।
आँखें बन्द कर लो, दुनियाँ का पाँचवाँ भाग समाप्त। कान बन्द कर लो, पाँचवाँ हिस्सा और गायब। नाक बन्द करो, पाँचवाँ हिस्सा और गुप्त। अपनी किसी इन्द्रिय से काम न लो तो कहीं कोई दुनियाँ नहीं रह जायगी।
अपने आपको परिस्थिति का गुलाम मत समझो। तुम अपने भाग्य के विधाता हो। चाहे तुम जिस दशा में हो, वातावरण कुछ भी हो, देह चाहे कारागार में डाल दी जाय अथवा तेज धारा में बहा दी जाय या किसी के पैरों तले कुचली जाय, याद रखोः मैं ईश्वर हूँ, सारी अवस्थाओं का स्वामी हूँ। मैं देह नहीं, मैं भाग्यविधाता हूँ।
दुनियाँ मेरा शरीर है सम्पूर्ण विश्व मेरा शरीर है। जो ऐसा कह सकता है वही आवागमन के बन्धन से मुक्त है। वह तो अनन्त है। कहाँ जायेगा और कहाँ से आयेगा ? सारा विश्वब्रह्मांड उसमें हैं।
वेदान्त रसायनविद्या है के समान प्रयोगत्मक विज्ञान है।
वेदान्त निराशावाद नहीं है। वह तो आशावाद का सर्वोच्च शिखर है।
किसी भी प्रसंग को मन में लाकर हर्ष, शोक के वशीभूत मत हो जाना। मैं अजर हूँ, अमर हूँ। मेरा जन्म नहीं, मेरी मृत्यु नहीं। मैं निर्लिप्त आत्मा हूँ। यही भावना दृढ़ रीति से हृदय में धारण करके जीवन व्यतीत करना, इसी भाव की निरन्तर सेवा करना और उसी में तल्लीन रहना।
मुक्ति अथवा आत्मज्ञान यह तेरे ही हाथ में है। यह बात तुझसे विश्वासपूर्वक कहता हूँ।
अमुक क्या कहता है क्या नहीं, इस पर यदि ध्यान दिया करें तो कुछ काम नहीं कर सकते।
चाहे हजारों रूपों में चकित करे, तथापि ऐ मेरे प्यारे ! मैं तुझे अच्छी तरह पहचानता हूँ। तू अपने चेहरे को चाहे जादू से छिपाये पर मुझसे छिप नहीं सकता।
बाहरी बातों के बारे में सोचकर अपनी मानसिक शांति भंग न करो।
जब हम सर्वात्मना तत्पर होंगे तब तो अपने व्यापक रूप के दर्शन में सफल न होने का कोई कारण ही नहीं रह जायेगा।
अपनी वास्तविकता को समझ लेने वाला पुरुष आनन्द के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं। किसी भी बात और किसी भी घटना से वह नहीं डरता। यह जान लेने वाला पुरुष पाप पुण्यों को छोड़कर सदा आत्मा को याद करने लगता है और किये हुए कर्म को भी आत्मरूप ही जान लेता है।
विवेकी पुरुष इस प्रतीयमान जगत को मिथ्या मान लेता है। उसके बाद फिर जब उसे यह जगत भासता है तब वह उसे इन्द्रियोपाधिक भ्रम समझकर टालता रहता है। वह जान लेता है कि जब तक ये इन्द्रियाँ बनी हैं तब तक ऐसी प्रतीति होती ही रहेगी। वह फिर इसको सत्य मानकर कोई भी व्यवहार नहीं करता।
जगत में जो अलग-अलग नाम रूप है वे निस्तत्त्व है, क्योंकि इनके जन्म और नाश बराबर होते हैं। ज्यों ही कोई अधिकारी इस सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्द को बुद्धियोग से देख लेगा (चाम की आँखों से नहीं), तब धीरे धीरे इन नाम-रूपों की अवहेलना बढ़ने लगेगी और नाम रूप छूटने लगेंगे।
ब्रह्म में ये नामरूप ऐसे हैं जैसे कपड़े पर कोई चित्र बना दिया गया है। जब कोई उन नामरूपों की उपेक्षा कर सके तभी उसे सच्चिदानन्द रूप ब्रह्मत्व के दर्शन होंगे।
जगत में दिखने वाले नाम रूपों का परित्याग कर देने पर सच्चिदानंद में ही ज्ञानी की ममता हो जाती है। इसीलिए विवेकी लोग हजारों प्रकार से दिख पड़ने वाले नाम रूपों की उपेक्षा करते रहते हैं।
लौकिक पदार्थ भले ही भासा करें। उनके सत्य होने का वृथा विचार सर्वथा छोड़ दो। जब लौकिक पदार्थों की उपेक्षा कर दी जायगी तब ब्रह्मचिन्तन का काँटा जाता रहेगा। फिर तो बुद्धि ब्रह्मचिन्तन में ही जुट जायगी।
वस्तुतः आत्मा में सुख-दुःखादि तीनों काल में भी नहीं है।
जब सारा जगत रज्जु में सर्प की तरह कल्पित है और मिथ्या है तब पुरुष को बंधन और मोक्ष कैसे हो सकता है ?
जब सारा विश्व अन्दर है तब बाहर देखने-सुनने की जगह कहाँ है ? अतः बाहर देखना सुनना निरर्थक है।
लोगों के अच्छे बुरे आचरणों और संवादों को अपने चित्त से नितान्त धो डालना चाहिए। इसी प्रकार अच्छे बुरे लोग जो भी मिलें उनकी हमें पूर्ण उपेक्षा करनी चाहिए और अपनी आध्यात्मिक दशा की उन्नति करनी चाहिए।
किसी वस्तु को ईश्वर से बढ़कर मत समझो। ईश्वर के बराबर किसी का भी मूल्य मत समझो।
निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख सब के सब एक सम्मान घातक है।
यदि हम देहाभिमान को दूर करके साक्षात् ईश्वर को अपने शरीर के भीतर से कार्य करने दें तो बुद्ध भगवान, हजरत या ईसा हो जाना उतना सरल है जितना कि निर्धन पोल।
दुनियाँ नहीं है, संसार नहीं है और सांसारिक जीवों की बातें कुछ नहीं है। ईश्वर ही एक मात्र सत्य है।
संसार में कोई पदार्थ नहीं जो मुझे बाँध सके। प्रत्येक वस्तु वास्तव में मुझसे ही उत्पन्न होती है।
अपने पैरों पर आप खड़े हो जाओ। चाहे आप उच्च पद पर हों या नीचे पद पर, इसकी तनिक भी परवाह मत करो। अपनी प्रभुता का, अपनी दिव्यता का साक्षात्कार करो। चाहे कोई हो, उसकी ओर निःशंक दृष्टि से देखो, हटो मत।
अनुभवी पुरुष के सामने कैसा ही व्यक्ति आ जाय, वह उस व्यक्ति के तुच्छ अहंकार या बाह्य शरीर को नहीं देखेगा। वह केवल ईश्वरत्व देखेगा।
चाहे करोड़ों सूर्यों का प्रलय हो जाय, अगणित चन्द्रमा भले ही गल कर नष्ट हो जाएँ, पर ज्ञानी पुरुष मेरू की तरह अटल और अचल रहते हैं।
यदि आप भौतिक रूप को हृदय में स्थान दोगे, यदि आप उसमें आसक्त हो जाओगे, उसे बेहद प्यार करने लगोगे तो आप देखोगे कि अवश्यमेव कुछ अघट घटना घट जायगी और उस वस्तु को हर लेगी या उसमें परिवर्तन कर देगी।
भौतिक पदार्थों में आसक्ति रखना एवं क्षणिक भौतिक पदार्थों को, विषयों को सत्य समझना ही दुःख, दर्द और चिन्ता को लाना है। इसलिए बाहरी नाम और रूप पर अपना समय और शक्ति नष्ट नहीं करना चाहिए।
चाहे यह शरीर शूली पर चढ़ाया जाय या कैद में रखा जाय, चाहे महासागर की विशाल तरंगे इस निगल जायें या अग्नि इसे झुलसा दे अथवा और कुछ बाधा भले ही आ पड़े, पर मेरा दृढ़ निश्चय भंग नहीं हो सकता।
सारे स्थूल शरीर कठ-पुतलियों के तुल्य हैं। आमतौर से लोग उन्हीं स्थूल शरीरों को वास्तविक रूप से करने वाला स्वतन्त्र कर्त्ता मानते हैं। यह भूल है।
जब अपने व्यक्तित्व के विषय में सोचना नितान्त त्याग दिया जाय तो इसके समान कोई सुख नहीं, इसके समान कोई अवस्था नहीं।
आप कोई भी काम करो पर यह मत भूलो कि आपका सच्चा स्वरूप परमेश्वर है।
ॐ का मतलब है 'मैं वही हूँ'। ऐसी दृढ़ भावना से चित्त उस तत्त्व में निमग्न हो जाता है। अनन्त देश, अनन्त काल, अनन्त वस्तु, अनन्त शक्ति, अनन्त तेज, अनन्त बल मैं हूँ।
इस दुनियाँ में जो आदमी किसी व्यक्ति या दुन्यावी चीजों में अपना दिल लगायेगा उसे तकलीफ उठानी पड़ेगी। या तो यह प्रियजन अथवा प्रिय पदार्थ उससे छीन लिये जायेंगे या उनमें से एक मर जायगा या उनमें कलह हो जायेगा।
जो आपको सबसे अधिक हानि पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं उनका कृपापूर्ण और प्रेममय चिन्तन करो। वे तुम्हारे अपने स्वरूप हैं।
किसी व्यक्तित्व और दलबंदी से व्याकुल और क्षुभित न होकर जो महावाक्य (अहं ब्रह्मास्मि) पर निरन्तर मनन द्वारा एकाग्रता और समाधि होती है वह स्वतः ही शक्ति, स्वतन्त्रता और प्रेम में परिणत हो जाती है।
हे डगमगाते, चंचल, संशयात्मक चित्त ! उत्साहशून्य धर्मपरायणता को अब छोड़ो। सब प्रकार का सन्देह और अगर मगर निकाल डालो। सब मत मतांतर तुम्हारी ही सृष्टि है। सूर्य चाहे पारे की थाली सिद्ध हो जाय, पृथ्वी उदराकार या खोखला मण्डल भले ही प्रमाणित हो जाय, वेद सम्भव है पौरूषेय ठहराय जा सकें, किन्तु तुम ईश्वर के सिवाय और कुछ नही हो सकते।.....और कुछ नहीं हो सकते।
हे मूढ़ और अदूरदर्शी जीव ! इस आदर्शरूप विधान की अपेक्षा बाह्य रूपों (व्यक्तियों) को क्यों अधिक प्यार करता है ? इसलिए कि अज्ञान के कारण ये व्यक्ति और बाह्य रूप निरन्तर एकरस रहने वाले सत्य पदार्थ दिखाई देते हैं और दैवी विधान एक अस्पर्श्य क्षणिक मेघ सदृश भान होता है। केवल शिव ही सत्य है और अन्य सब व्यक्ति एवं प्रीति के पदार्थ क्षणिक आभासरूप, छाया मात्र, मिथ्या प्रेत रूप हैं।
लोग इस शरीर को स्वार्थी, सर्वगुणसम्पन्न, मदोन्मत्त अथवा अन्य जो चाहे कहें, अपमानित, पददलित और मृतक जैसा कह दें। मुझ सर्वात्मा को इससे क्या ?
यदि हम लोग बाहर से प्राप्त हुई निन्दा-स्तुति में विश्वास न करने की शक्ति अपने भीतर उपार्जित कर लें, यदि विजय प्राप्त करना हमारा उद्देश्य न हो, यदि हम कार्य करने के ज्वर से मुक्त हो जाएँ, यदि सत्य के उपदेश की अपेक्षा स्वयं सत्य बनने में हम अपनी शक्ति अधिक लगाएँ तो ईश्वर के ईश्वर हम हो सकते हैं।
संसार में केवल एक ही रोग है और एक ही दवा है। 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' – इस वेदान्तिक नियम का भंग ही सारी व्याधियों की जड़ है जो कभी एक दुःख का रूप धारण करती है और कभी दूसरे का। इसकी औषधि है अपने वास्तविक ईश्वरत्व को प्राप्त करना।
सारी चिन्ताएँ, सारे दुःख दर्द आपके भीतर ही रहते हैं, कभी बाहर नहीं होते।
सारी शंकाएँ अज्ञानजन्य हैं। एक पल में उड़ सकती हैं।
जब तक आप अपने अन्तःकरण के अन्धकार को दूर करने पर न तुलोगे तब तक तीन सौ तैंतीस कोटि कृष्ण क्यों न अवतार लें, पर कुछ भी लाभ न होगा।
जब शरीर अथवा बाह्य मायाविक रूप इतना प्रधान हो जाता है कि भीतर का ईश्वर विस्मृत हो जाता है, तब आपकी अधोगति होती है। इसे दूर करो। तब आप देखेंगे कि सारी शक्तियाँ, ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ आपकी सेवा कर रही हैं। इसका निदिध्यासन करो, फिर सूर्य, चन्द्र और सारे तारे आपका हुक्म बजायेंगे।
किसी व्यक्ति को परमात्मा से भिन्न किसी अन्य भाव से देखने की कभी कोई सम्भावना मुझे नहीं रही।
इस संसार की सभी चीजें ईश्वर का चिन्ह मात्र है। पुरुष और स्त्री इन्हीं चित्रों के शिकार होते हैं। वे बुतपरस्ती का शिकार बनते हैं और मूर्तियों के गुलाम हो जाते हैं।
शरीर, भीतरी परमेश्वर का चित्र, प्रतिमूर्ति या पोशाक है। पोशाक को अथवा इसके पहनने वाले व्यक्ति को, भीतरी असलियत से अधिक प्यार मत कर।
जिस क्षण तुम इन सांसारिक पदार्थों में सुख ढूँढना छोड़ दोगे और स्वाधीन हो जाओगे, अपने भीतर के परमेश्वर का अनुभव करोगे उसी क्षण तुम्हें ईश्वर के पास जाना नहीं पड़ेगा। ईश्वर स्वयं तुम्हारे पास आयेगा। यही दैवी विधान है।
यदि क्रोधी तुम्हें शाप दे और तुम कुछ न बोलो तो उसका शाप आशीर्वाद के रूप में बदल जायगा।
जो भी कुछ है सब आत्मा ही है। आत्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है तो तुम आत्मा ही हो। ऐसा निश्चय करो।
जबकि सब कुछ मैं ही हूँ तो दुःख और सुख अथवा बन्ध और मोक्ष आदि मुझसे पृथक कोई ऐसी वस्तु नहीं रहती कि जो मुझे बाधा दे।
सब प्राणियों का चेतनरूप ब्रह्म मैं ही हूँ।
जब हम ईश्वर के प्रतिकूल हो जाते है तब हमें कोई मार्ग नहीं दिखता और हमें घोर दुःख उठाना पड़ता है। जब हम ईश्वर में तन्मय होते है तब ठीक उपाय, ठीक प्रवृत्ति, ठीक प्रवाह, आप ही आप हमारे हृदय में उठते हैं।
अपने आपको अड़ोस-पड़ोस के लोगों की आँखों से देखना, अपने सच्चे स्वरूप पर स्वयं ध्यान न देना बल्कि दूसरों की दृष्टि से अपना निरीक्षण करना यह जो स्वभाव है यही हमारे सारे दुःखों का कारण है। हम दूसरों की नजरों में अत्यन्त भला जँचना चाहते हैं, यही समाज का सामाजिक दोष है। .....और सभी धर्मों का प्रधान अवगुण है।
लोग क्यों दुःख सहते हैं ? वे दुःख सहते हैं निज आत्मा के अज्ञान के कारण, जिससे वह अपना सत्य स्वरूप भूल जाता है और दूसरे उनको जो कुछ कहते हैं वही वे अपने को समझ लेते हैं। यह दुःख तब तक निरन्तर बना रहेगा जब तक मनुष्य आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर लेगा।
जब तक बाह्य रूपों में आसक्ति रखेंगे तब तक यह उत्थान पतन होता ही रहेगा।
जिसको ब्रह्म से एकता है उसकी सब इच्छाएँ परिपूर्ण हो जाती हैं। उसे कभी कोई धोखा नहीं होगा, कोई पीड़ा या कष्ट न होगा।
अनन्त स्वरूप आत्मा के सिवाय कोई और वस्तु है ही नहीं जिसे आप देखें या सुनें। न कोई द्वैत है, न कोई पदार्थ है। हर एक वस्तु आपके लिए ईश्वर बन जानी चाहिए।
जिस समय जगत के सारे पदार्थ चित्र या चिन्ह मात्र बन जाते हैं, जिस समय हम पदार्थों को पदार्थ भाव से नहीं देखते बल्कि उनके पीछे उनके आधार रूप निर्विकार आत्मा क देखते हैं, जिस समय हमारी दृष्टि इस या उस पदार्थ पर पड़ते ही उसमें हमारा हृदयनेत्र शुद्ध स्वरूप परमात्मा को देखता है तब समस्त विश्व के साथ एकता, अभेदता का अनुभव करना हमारे लिए सुगम हो जाता है। यही ईसा दशा है। इस अवस्था में कुछ काल रहने के बाद इससे भी उच्चतर स्थिति आती है। तब हम परमात्मा में पूर्णतया लीन हो जाते हैं। इसको हम निर्वाण या समाधि अवस्था कहते है।
अगर तुम साधक हो तो शत्रु में शत्रुबुद्धि त्यागकर ईश्वरबुद्धि करो, ब्रह्मबुद्धि करो। शत्रु भी ब्रह्म है। प्रत्येक प्राणी और पदार्थ में ईश्वरत्व का अनुभव करो।
अपने शरीर के जीने मरने की चिन्ता न करो। लोग आपके शरीर की पूजा करते हैं या उस पर ढेले मारते हैं इसकी परवाह मत करो। इससे ऊपर उठो।
वेदान्त का अनुभव करने से समस्त पीड़ायें – शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक-तुरन्त रुक जाती है। और ..... वेदान्त का अनुभव करना कठिन काम नहीं है।
अपने ही भीतर परमेश्वर को प्रसन्न करने का यत्न कीजिए। जनता और बहुमत को आप किसी हालत में सन्तुष्ट नहीं कर सकेंगे।
जब आप स्वयं प्रसन्न हैं तब जनता अवश्य सन्तुष्ट होगी।
भूतकाल की मुझको चिन्ता नहीं और भविष्य की इच्छा नहीं। मैं वर्त्तमान में विषय तथा राग द्वेष से रहित होकर विचरता हूँ।
न मैं हूँ, न जगत है, न पृथ्वी है, तो शोक किसका करना ?
जब तक संसार का शब्द अर्थ हृदय में दृढ़ है तब तक शब्द अर्थ के अभाव का चिन्तन करें। जहाँ जगत भासता है वहाँ ब्रह्म की भावना करें। जब ब्रह्म की भावना करेंगे तब संसार के शब्द अर्थ से रहित हो जायेंगे और आत्मपद पावेंगे !
जैसे छोटे बालक के हृदय में जगत के शब्द अर्थ नहीं होते वैसे ही ज्ञानी के हृदय में भी शब्द अर्थ का अभाव है। ज्ञानी की चेष्टा प्रारब्ध वेग से होती रहती है।
जैसे स्वप्न में नाना प्रकार के शब्द भासते हैं सो कुछ वास्तव में नहीं, पत्थर की नाईं मौन है, तैसे जाग्रत में भी जो कुछ शब्द होते हैं सो सब स्वप्न है, कुछ हुआ नहीं। केवल आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है।
समाधि का अभ्यास करने पर आलस्य, भोगवासना, लय, तम, विक्षेप, रसास्वाद, शून्यता आदि विघ्न अवश्य आते हैं। अतः उत्साह से, तत्परता से इन विघ्नों को हटाकर अपने लक्ष्य पर पहुँच जाना चाहिए। आलस्य को आसन और प्राणायाम से, भोगवासना को वैराग्य और भोगों में दोषदर्शन से, लय को प्रणव के जाप से, तम को सत्त्वगुण से, विक्षेप को एकाग्रता से मिटाना चाहिए।
जब सब नारायण ही है तब भय किससे हो ? भय दूसरे से होता है।
मुझ चैतन्य आत्मा के भय से सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, यम, समुद्र, नदियाँ, ब्रह्मा, विष्णु, शिवादिक सब भयभीत होते हैं।
मुझमें मरना जीना दोनों नहीं है तो भय क्यों रखूँ ?
आप बिना कुछ न देखे, न सुने, क्योंकि मुझ सच्चिदानन्द स्वरूप बिना और कुछ है ही नहीं।
वेद सहित सर्व संसार को स्वप्नवत जानना है। जो इससे आगे भी कर्त्तव्य माने सो भ्रमी पुरुष है।
यह निश्चय करो कि जिस विचार और शब्द से भय उत्पन्न होता है यह केवल अज्ञान है। तुम्हें भय किसका ? संसार में आप ही आप तो हैं। इसी निश्चय पर पर्वत की भाँति अविचल रहो।
जब भेदवादियों के बीच में भ्रमयुक्त, रोचक, या भयानक वचन सुनकर चित्त घबड़ाने लगे तो एकदम अपने को उस अज्ञान संयुक्त चित्त का साक्षी जानकर, उन कल्पित वचनों को त्याग दो।
जब किसी प्रकार की कामना चित्त को उत्तेजित करे या सताने लगे, तब अपने पूर्ण तृप्त स्वरूप का स्मरण कर उस दीनता से दूर हो जाओ।
जब शरीर और  इन्द्रियों से कर्म करने का मौका मिले तो अपने को साक्षी अवस्था में स्थित करो और किसी भी कर्म का कर्त्ता अपने को न मानो।
अगर साधारण लोगों से मिलकर कार्य करने का मौका सामने आये तो सब भेद-भाव दिल से हटाकर सहज और समता भाव से उस कार्य को पूरा करो।
अहो....! यह संपूर्ण जगत मुझमें ही तो उत्पन्न हुआ है तथा यह मुझमे ही स्थित है और मुझमें ही लीन हो जाता है। चराचर जगत मैं ही हूँ।
जगत रूपी चित्र आत्मस्वरूप चैतन्य में इस प्रकार माया से अर्पित है जैसे वस्त्र में चित्र। इससे मायोपाधिक जगत की उपेक्षा करके चैतन्य का परिशेष करो।
कल कभी आने वाला नहीं है। जीवित आज से टक्कर लेनी है। न किसी बात को कल पर छोड़ना, न इस चिन्ता में पड़ना कि कल क्या होगा। क्योंकि कल आने वाला नहीं है। और ..... जिसे कल समझा जाता है उसे भी आज बनकर ही आना पड़ेगा।
ब्रह्म में नाम रूप इस प्रकार देखो जैसे समुद्र में बुलबुले। यह प्रतीति मात्र है।
दूसरों को प्रसन्न करने के उद्देश्य से कभी कुछ मत करो। व्यर्थ की खुशामदखोरी से बचकर जो अपने ईश्वरत्व में टिकते हैं वे ही वीर हैं।
वेदान्त के अनुसार दया मात्र दुर्बलता है। वेदान्त कहता है कि यदि आप सत्य का इसलिए विरोध करते हो कि सत्य से किसी का दिल टूट जायेगा तो सत्य की हत्या होने की अपेक्षा किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाना बेहतर है।
जब पाँचों भूत या उनसे बना हुआ कोई भी पदार्थ दिखे, उसके सत्य तत्त्व पर दृष्टि पड़ने लगे और उसी में जमने लगे तो यही 'द्वैतावज्ञा' है, यही अद्वैतबुद्धि' है।
शरीर का मोह छोड़कर भजन करना चाहिए। शरीर की जरा भी चिन्ता नहीं करना चाहिए। जैसा चिन्तन होता है वैसे ही पदार्थों से आदमी घिर जाता है।
मैं अपनी निन्दा सुनकर कभी दुःखी नहीं होऊँगा और स्तुति सुनकर प्रसन्न भी नहीं होऊँगा। कभी कभी प्रातःकाल ऐसा संकल्प दुहराकर दृढ़ हो जाना चाहिए। इससे समता के साम्राज्य में शीघ्र पहुँच जाओगे।
न कोई मृत्यु है, न रोग है, न शोक है। इस प्रकार के आनन्दमय जीवन पर नित्य ध्यान दो।
अपनी आत्मा को सृष्टि की आत्मा अनुभव करो।
पेट को चिकने और भारी पदार्थों से भर देने वाला तीव्रबुद्धि विद्यार्थी भी अयोग्य और स्थूलबुद्धि हो जाता है। इसके विपरीत हलके भोजन से मस्तिष्क सदा स्वच्छ और हलका रहता है।
सब कुछ एक ही है। प्रेम को द्वैत से कुछ मतलब नहीं।
अपने आप में सब चीजों को और सब चीजों में अपने आपको देखना ही असली आँखवाला होना है।
यदि सबसे अपनी एकता का तुम अनुभव कर लो तो तुम देखोगे कि तुम्हारा मस्तिष्क अत्यन्त शक्तिशाली हो गया है।
अपने दृढ़ संकल्प की पूर्ति के लिए बार-बार असफल होकर भी पीछे न मुड़ो। अन्त में निःसन्देह तुम्हारी विजय होगी।
नीति में निपुण लोग चाहे प्रशंसा करें या निन्दा, लक्ष्मी चाहे अनुकूल हो या अपने मनमाने मार्ग पर जाय, मृत्यु चाहे आज आये या सैंकड़ों वर्षों के बाद, धैर्यवान कभी न्याय के पथ से विचलित नहीं होते।
बड़े से बड़े शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शब्दों को काम में लाओ।
मेरा धर्म सिखाता है कि भय ही सबसे बड़ा पाप है।
वीर और निडर होओ, मार्ग साफ होगा। साहसी बनो। किसी चीज से न डरो।
यह संसार बालकों का खेल मात्र है। उससे मैं कैसे विचलित हो सकता हूँ।
न तो दृष्टा ही सत्य है और न दृश्य। सब शब्दों का खेल मात्र है। शब्दों पर झगड़ने से क्या लाभ ? वास्तव में एक ही आत्मा है जो हम हैं। उसके सिवाय कुछ भी नहीं है।
मनुष्यादि प्राणी स्वप्न या स्मृति आदि के समय जब कि अनुकूल प्रतीत होने वाला बाह्यार्थ नहीं होता तब भी सुखी होता है अथवा प्रतिकूल व्याघ्रादि सच्चा पदार्थ नहीं होता तब भी दुःखी हुआ करता है। इसके विपरीत समाधि, सुषुप्ति तथा मूर्छा के समय इन बाह्यार्थ पदार्थों के विद्यमान रहने पर भी सुखी या दुःखी नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि सुख-दुःख के साथ मानस पदार्थों के ही अन्वय व्यतिरेक हैं। जीव अपने मानस पदार्थों से ही सुखी या दुःखी हैं। केवल बाह्यार्थ से कोई सुखी दुःखी नहीं होता।
जब तक चित्त में इतनी दृढ़ता नहीं आ जाती कि शास्त्रविधियों का पालन छोड़ देने पर भी हृदय का यथार्थ भक्ति भाव नष्ट नहीं होता तब तक इनको मानते चलो।
यह जगत छोटे बच्चों के खिलौने के समान है। हम जब इसे समझ लेंगे तो जगत में कुछ भी क्यों न हो, वह हमें चंचल नहीं कर सकेगा। शुभ और अशुभ सभी मेरे दास हैं।
जगत को एक तस्वीर के समान देखो। जगत में मुझे कोई भी वस्तु विचलित नहीं कर सकती। यह समझकर जगत के सौन्दर्य का उपभोग करो।
अच्छा बुरा दोनों को एक दृष्टि से देखो। दोनों ही भगवान के खेल है। इसलिए अच्छा-बुरा, सुख-दुःख सभी में आनन्द का अनुभव करो।
लोग तुम्हारी बुराई करें तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो। सोचकर देखो कि वे तुम्हारा कितना उपकार करते हैं।
शास्त्र तो सब हमारे ही भीतर हैं। धैर्यहीन व्यक्ति कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता।
हम दूसरों के कार्यों की जो निन्दा करते हैं वह वास्तव में हमारी अपनी ही निन्दा है।
तुम अपने क्षुद्र ब्रह्मांड को ठीक करो जो तुम्हारे हाथ में है। ऐसा करने पर बृहद् ब्रह्मांड भी तुम्हारे लिए आप ही आप ठीक हो जायगा।
हमारे भीतर हो नहीं है, बाहर में भी हम उसे नहीं देख सकते।
'खराब' शब्दवाच्य कुछ है, इसे स्वीकार मत करो।
इन्द्रियज्ञान सम्पूर्ण भ्रान्ति है।
मुक्तिलाभ करने के लिए तुम्हारे पास जो कुछ शक्ति है, सब लगा दो।
कोई भी कार्य करते समय ऐसा मत कहो कि यह मेरा कर्त्तव्य है। ऐसा कहो कि वह मेरा स्वभाव है।
शिशु संसार में कोई भी पाप नहीं देख पाता क्योंकि बाहर के पापों का परिणाम-निर्णायक कोई मापदण्ड उसके भीतर है ही नहीं। छोटे लड़कों के सामने डकैती होती है परन्तु उनका उधर ध्यान ही नहीं रहता। उन्हें वह अन्यायरूप प्रतीत ही नहीं होता।
दूसरे को पापी कहने से बढ़कर और कोई बुरा कार्य नहीं है। मनुष्य को भगवान समझकर उसके प्रति प्रेम रखने में कितना आनन्द है ! एकबार स्वयं अनुभव करके देखिये।
भूत या भविष्य में तुम्हारी अपेक्षा न कोई श्रेष्ठ ईश्वर था, न है, न होगा।
अन्य सभी चिन्ताएँ छोड़कर सर्वान्तःकरण से दिन-रात ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। सुख-दुःख, लाभ-हानि इन सब को त्यागकर दिन-रात ईश्वर की उपासना करो। एक क्षण भी व्यर्थ मत जाने दो।
जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है उसे एक ही जन्म में हजारों वर्षों का काम कर लेना पड़ेगा। उसे इस युग के भावों की अपेक्षा बहुत आगे जाना पड़ेगा।
जो लोग शरीर से दुर्बल हैं वे आत्म-साक्षात्कार के लिए अयोग्य हैं। मन पर एक बार अधिकार प्राप्त हो जाने पर देह सबल रहे या सूख जाय इससे कुछ नहीं होता। वास्तविक बात यह है कि शरीर के स्वस्थ न रहने पर कोई आत्मज्ञान का अधिकारी नहीं बन सकता, शरीर में जरा भी त्रुटि रहने पर जीव सिद्ध नहीं बन सकता। जब मन सहित षट् इन्द्रियों का अभाव हो जाय तभी वह शान्ति को प्राप्त होता है।
मलाई, तेल, घी या चर्बी खाना ठीक नहीं है। पूरी से रोटी अच्छी होती है। मिठाई तो बिल्कुल ही नहीं खानी चाहिए। विशुद्ध वनस्पति पर ही अधिकतर अपना आधार रखना चाहिए।
दूसरे सब प्रयत्नों को छोड़कर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि आत्मा का विकास हो सके। आत्मा के विकास के साथ बुद्धि भी प्रत्येक विषय में प्रवेश करने लगेगी। जीवमात्र पूर्ण आत्मा ही है।
अन्य साधारण जीवों के समान मैं भी कांचन और कामिनी में मुग्ध बना रहूँ तो इसमें मेरा वीरत्व ही क्या है ?
आप पर आपत्ति, दुःख और चिन्ताएँ भीतर के आत्मा का अनुभव कराने के लिए आती हैं। इनका काम आपको यही सुझाने का है कि आप हृदयस्थ सूर्यों के सूर्य, प्रकाशों के प्रकाश का अनुभव करें।
अपने आपको ब्रह्म समझो। अपने ब्रह्म होने में ज्वलन्त विश्वास रखो। तब कोई भी वस्तु और कोई भी व्यक्ति तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकता।
क्या तुम इस ब्रह्मांड के स्वामी नहीं हो ? ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जिन्हें तुम हटा नहीं सकते ?
जानकर या अनजान में जो कोई रात-दिन यह सोचा करता है कि 'मैं नित्य हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं बुद्ध हूँ, मैं मुक्तात्मा हूँ' वह समय पाकर अवश्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेता है।
योग में अनेक विघ्न हैं। योग साधते समय मन यदि विभूति के मार्ग में लुब्ध हो गया तो पुनः स्वरूप में पहुँचने में बड़ी देर लगती है। एक मात्र ज्ञानमार्ग है। उसमें भी विचारमार्ग तथा मतों के अनुकूल होने वाला मार्ग है। उसमें भी विचारमार्ग में चलते समय कई बार मन दुस्तर तर्कजालों में फँस जाता है, इसलिए विचार के साथ ध्यान भी रखना पड़ता है।
हृदय में सिंह के समान बल धारण करो। भय ही मृत्यु है, भय ही महा पातक है। इसलिए बिल्कुल निर्भय हो जाओ। फिर कोई भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष जगत की क्षणभंगुर अवस्था को अपनी प्रशांत ब्राह्मी स्थिति के अंदर हँसता हुआ देखता है। उसके लिए न कुछ पाना शेष रह जाता है न कुछ करना रह जाता है। वह सर्वव्यापी परब्रह्म परमात्म-स्वरूप हो बन जाता है।

2 comments:

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  2. waaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa.................h

    वाह गुरु वाह, वाह मेरे सद्गुरुदेव...!,इतना ऊँचा आत्मज्ञान का सत्संग तो किसी खास सत्पात्र शिष्य को दिया जाता है इसके तो हम अधिकारी भी नहीं होंगे। ये तो आपकी करुणा कृपा है। हे प्रभों आपको बारम्बार धन्यवाद और प्रणाम है। हे प्रभु इस ज्ञान को हम अपने स्वभाव मे आत्मसात कर सके ऐसी कृपा भी थोड़ी सी कर देना। ये तो आपकी कृपा से ही होगा।

    इसकी तो मुझे जरूरत थी और आपकी इस सेवा से निश्चय ही बहुत से साधको को मार्गदर्शन मिलेगा। पूज्य बापूजी इस सेवा को ऐसे ही बढ़ाते रहे।

    ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

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