पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, February 28, 2011




जीवन विकास  पुस्तक से - Jivan Vikas pustak se

आत्म-कल्याण में विलम्ब क्यों?  - Atma-kalyaan me Vilamb kyon?

किसी भी कर्म का फल शाश्वत नहीं है। पुण्य का फल भी शाश्वत नहीं और पाप का फल भी शाश्वत नहीं। केवल ज्ञान का फल, परमात्म-साक्षात्कार का फल ही शाश्वत है, दूसरा कुछ शाश्वत नहीं है।
पुण्य का फल सुख भोगकर नष्ट हो जाता है। पाप का फल दुःख भोगने से नष्ट हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहाः "पुण्य का फल ईश्वर को समर्पित करने से हृदय शुद्ध होता है। शुद्ध हृदय में शुद्ध स्वरूप को पाने की जिज्ञासा जगती है। शुद्ध स्वरूप को पाने की जिज्ञासा जगती है तब वेदान्त-वचन पचते हैं।
किसी व्यक्ति ने कुछ कार्य किया। उसको ज्यों का त्यों जाना तो यह सामाजिक सत्य है, परम सत्य नहीं है। परम सत्य किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के इर्दगिर्द नहीं रहता। उस सत्य में तो अनन्त अनन्त व्यक्ति और ब्रह्माण्ड पैदा हो होकर लीन हो जाते हैं, फिर भी उस सत्य में एक तिनका भर भी हेरफेर या कटौती-बढ़ौती नहीं होती। वही परम सत्य है। उस परम सत्य को पाने के लिए ही मनुष्य जन्म मिला है।
इस प्रकार का दिव्य ज्ञान पाने का जब तक लक्ष्य नहीं बनता है तब तक किसी न किसी अवस्था में हमारा मन रुक जाता है। किसी न किसी अवस्था में हमारी बुद्धि स्थगित हो जाती है, कुण्ठित हो जाती है।
अवस्था अच्छी या बुरी होती है। जहाँ अच्छाई है वहाँ बुराई भी होगी। जहाँ बुराई है वहाँ अच्छाई की अपेक्षा है। बुरे की अपेक्षा अच्छा। अच्छे की अपेक्षा बुरा। लेकिन अच्छा और बुरा, यह सारा का सारा शरीर को, अन्तःकरण को, मन को बुद्धि को, 'मैं' मान कर होता है। हकीकत में ये अन्तःकरण, मन, बुद्धि 'मैं' है ही नहीं। असली 'मैं' को नहीं जानते इसलिए हर जन्म में नया 'मैं' बनाते हैं। इस नये 'मैं' को सजाते हैं। हर जन्म के इस नये 'मैं' को आखिर में जला देते हैं।
असली 'मैं' की अब तक जिज्ञासा जगी नहीं तब तक मानी हुई 'मैं' को सँभालकर, सँवार कर, बचाकर, जीवन घिस डालते हैं हम लोग। मानी हुई 'मैं' की कभी वाह वाह होगी कभी निन्दा होगी। 'मैं' कभी निर्दोष रहेगा कभी दोषी बनेगा, कभी काम विकार में गिरेगी, कभी निष्काम होगी। मानी हुई 'मैं' तो उछलती, कूदती, डिमडिमाती, धक्के खाती, अन्त में स्मशान में खत्म हो जायेगी। फिर नये जन्म की नई 'मैं' सर्जित होगी। ऐसा करते यह प्राणी अपने असली 'मैं' के ज्ञान के बिना अनन्त जन्मों तक दुःखों के चक्र में बेचारा घूमता रहता है। इसीलिए गीताकार ने कहा हैः
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
'ज्ञान के समान पवित्र करने वाली और कोई चीज नहीं।' (गीताः4.38)
जब अपनी असलियत का ज्ञान मिलता है तब बेड़ा पार होता है। बाकी तो छोटी अवस्थाओं से बड़ी अवस्थाएँ आती हैं। बड़ी अवस्थाओं से और बड़ी अवस्थाएँ आती हैं। इन अवस्थाओं का सुख-दुःख अन्तःकरण तक सीमित रहता है।
अवस्था का सुख देह से एक होकर मिलता है, लेकिन सत्य का साक्षात्कार जब देह से एक होना भूलते हैं और परमात्मा से एक होते हैं तब होता है, तब असली सुख मिलता है। शरीर से एक होते हैं तब माया का सुख मिलता है, नश्वर सुख मिलता है और वह सुख शक्ति को क्षीण करता है। परमात्मा से जब एक होकर मिलते हैं, जितनी देर परिच्छिन्न 'मैं' भूल जाते हैं उतनी देर दिव्य सुख की झलकें आती हैं। चाहे भक्ति के द्वारा चाहे योग के द्वारा, चाहे तत्त्वविचार के द्वारा परिच्छिन्न 'मैं' भूलकर परमात्मा से एक होते हैं तो परम सुख की झलकें आती हैं। फिर जब परिच्छिन्न 'मैं' स्मरण में आता है तो आदमी शुद्ध सुख से नीचे आ जाता है।
जितने प्रमाण में इन्द्रियगत सुख है, बाहर का आकर्षण है उतने प्रमाण में जीवन नीचा है, छोटा है। लोगों की नज़र में हम चाहे कितने ही ऊँचे दिख जायें लेकिन जितना इन्द्रियगत सुख का आकर्षण है, प्रलोभन है उतना हमारा जीवन पराधीन रहेगा, नीचा रहेगा। जितना जितना दिव्य सुख की तरफ ज्ञान है, समझ में उतने हम वास्तविक जीवन की ओर होंगे, हमारा जीवन उतना ऊँचा होगा।
ऊँचा जीवन पाना कठिन नहीं है। फिर भी बड़ा कठिन है।
मैंने सुनी है एक घटना। वरराजा की बारात ससुराल पहुँची और सास वरराजा को पोंखने (तिलक करने) लगी। उस समय नागा साधुओं की जमात उधर आ निकली। पुरानी कहानी है। अनपढ़ लोग थे। ऐसे ही थे जरा विचित्र स्वभाव के। साधुओं ने पूछाः
"यह माई लड़के को तिलक विलक कर रही है, क्या बात है?"
किसी ने बतायाः "यह दूल्हे का पोंखणा हो रहा है।"
नागाओं को भी पुजवाने की इच्छा हुई। एक नागा दूल्हे को धक्का मारकर बैठ गया पाट और बोलाः
"हो जाये महापुरुषों का पोखणा।"
उसका पोंखणा हुआ न हुआ और दूसरा नागा आगे आया। पहले को धक्का देकर स्वयं पाट पर बैठ गया।
"हो जाये महापुरुषों का पोंखणा।"
इसी प्रकार तीसरा........ चौथा.......... पाँचवाँ........ नागा साधुओं की लाईन लग गई। दूल्हा तो बेचारा एक ओर बैठा रहा और 'हो जाये महापुरुषों का पोंखणा..... हो जाये महापुरुषों का पोंखणा.....' करते करते पूरी रात हो गई। दूल्हे की शादी का कार्यक्रम लटकता रह गया।
ऐसे ही इस जीव का ईश्वर के साथ मिलन कराने वाले सदगुरु जीव को ज्ञान को तिलक तो करते हैं लेकिन जीव के अन्दर वे नंगी वृत्तियाँ, संसार-सुख चाहने वाली वृत्तियाँ आकर पाट पर बैठ जाती हैं। 'यह इच्छा पूरी हो जाये... वह इच्छा पूरी हो जाये....!' जीव बेचारा इन इच्छाओं को पूरी करते-करते लटकता रह जाता है।
नागा साधुओं की जमात तो फिर भी चली गई होगी। लेकिन हमारी तुच्छ वृत्तियाँ, तुच्छ इच्छाएँ आज तक नहीं गई। इसीलिए जीव-ब्रह्म की एकता की विधि लटकती रह जाती है। उस दूल्हे को तो एक रात शादी के बिना लटकते रहना पड़ा होगा लेकिन हम जैसे हजारों लोगों को युगों युगों से 'पोंखानेवाले' विचार, वृत्तियाँ, इच्छाएँ परेशान कर रही हैं। तो अब कृपा करके इन सब पोंखने वालों को तिलांजली दे दो।'
'यह हो जाये.... वह हो जाये..... फिर आराम से भजन करूँगा। इतना हो जाये फिर भजन करुँगा....।' आप जानते नहीं कि भजन से ज्यादा आप संसार को मूल्य दे रहे हैं। भजन का मूल्य आपने जाना नहीं। 'इतना पाकर फिर पिया को पाऊँगा' – तो पिया को पाने की महत्ता आपने जानी नहीं। क्यों नहीं जानी? क्योंकि वे आ गये, 'हो जाये पोंखणा' वाले विचार बीच में।
प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, प्राणायाम से प्राण बल बढ़ता है, सेवा से क्रियाबल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है। ऊँची समझ से सहज समाधि अपना स्वभाव बन जाता है।
तुम जितने अंश में ईश्वर में तल्लीन होगे उतने ही अंश में तुम्हारे विघ्न और परेशानियाँ अपने-आप दूर हो जायेंगी और जितने तुम अहंकार में डूबे रहोगे उतने ही दुःख, विघ्न और परेशानियाँ बढ़ती जायेंगी।
पूरे विश्व का आधार परमात्मा है और वही परमात्मा आत्मा के रूप में हमारे साथ है। उस आत्मा को जान लेने से सबका ज्ञान हो जाता है।
रात्रि का प्रथम प्रहर भोजन, विनोद और हरिस्मरण में बिताना चाहिए। दो प्रहर आराम करना चाहिए और रात्रि का जो चौथा प्रहर है, उसमें शरीर में रहते हुए अपने अशरीरी स्वभाव का चिन्तन करके ब्रह्मानंद का खजाना पाना चाहिए।

2 comments:

  1. Kamaal hai Prabhuji aapki gurubhakti aur seva-bhaav. Jeevan-Vikaas pustak ashram ki bahut purani books mein se ek hai. Usme se bhi aapne kammal ka topic select kiya hai. Waah Waah. apni asali 'MAIN' ko jaane bina janam-maran roopi sabse bade dhukh se kabhi peecha nahin chut sakta!!!

    ReplyDelete
  2. Maine ek saadhak se suna tha ki Param Pujya Sant Shri Asaramji Ahemdabaad Satsang mein mobile-vyaaspeeth par viraajmaan huye n bhakton n disciples ko nikat se darshan diye . Is blog se maine wo durlabh darshan bhi kar liye. Aapka khub-khub dhanywaad. I am really feeling very very greatful to see THIS 'DURLABH DARSHAN OF PUJYA BAPUJI'

    ReplyDelete