पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, February 21, 2011


ऋषि प्रसाद  पुस्तक से - Rishi Prasaad pustak se


सदगुरु-सेवाः परम रसायन

गुरुभक्ति और गुरुसेवा ये साधनारूपी नौका की पतवार है जो शिष्य को संसारसागर से पार होने में सहायरूप हैं।
आज्ञापालन के गुण के कारण आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में आने वाला सब से बड़ा शत्रु अहंभाव धीरे धीरे निर्मूल हो जाता है।
पूजा, पुष्पोहार, भक्ति तथा अन्य आँतिरक भावों की अभिव्यक्तियों से गुरुआज्ञापालन का भाव ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
जो मनुष्य गुरुभक्तियोग के मार्ग से विमुख है वह अज्ञान, अन्धकार और मृत्यु की परंपररा को प्राप्त होता है।
किसी आदमी के पास विश्व की अत्यन्त मूल्यवान सारी वस्तुएँ हों लेकिन उसका चित्त यदि गुरुदेव के चरणकमलों में नहीं लगता हो तो समझो कि उसके पास कुछ भी नहीं है।
गुरुदेव की सेवा दिव्य प्रकाश, ज्ञान और कृपा को ग्रहण करने के लिए मन को तैयार करती है।
गुरुसेवा हृदय को विशाल बनाती है, सब अवरोधों को हटाती है, मन को हमेशा प्रगतिशील और होशियार रखती है। गुरुसेवा हृदयशुद्धि के लिए एक प्रभावशाली साधना है।
गुरुसेवा से ईर्ष्या, घृणा और दूसरों से उच्चतर होने का भाव नष्ट होता है।
जो शिष्य सदुगुरुदेव की सेवा करता है वह वास्तव में अपनी ही सेवा करता है।
शिष्य को चाहिए कि वह अपने गुरुदेव के समक्ष धीरे, मधुर वाणी में और सत्य बोले तथा कठोर एव गलीज शब्दों का प्रयोग न करे।
जो गुरु की निंदा करता है वह रौरव नर्क में गिरता है।
शिष्य जब गुरुदेव के सान्निध्य में रहता है तब उसका मन इन्द्रिय-विषयक भोग विलासों से विमुख हो जाता है।
राजसी प्रकृति का मनुष्य पूरे दिल से, पूरे अन्तःकरण से गुरु की सेवा नहीं कर सकता।
सदगुरुदेव के स्वरूप का ध्यान करते समय दिव्य आत्मिक आनन्द, रोमांच, शान्ति आदि का अनुभव होगा।
संसारी लोगों का संग, आवश्यकता से अधिक भोजन, अभिमानी राजसी प्रवृत्ति, निद्रा, काम, क्रोध, लोभ ये सब गुरुदेव के चिन्तन में अवरोध हैं।
गुरुभक्ति जन्म, मृत्यु और जरा को नष्ट करती है।
शिष्य लौकिक दृष्टि से कितना भी महान हो फिर भी सदगुरुदेव की सहायता के बिना निर्वाणसुख का स्वाद नहीं चख सकता।
गुरुदेव के चरणकमलों की रज में स्नान किये बिना मात्र तपश्चर्या करने से या वेदों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
गुरुदेव को शिष्य की सेवा या सहायता की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। फिर भी सेवा के द्वारा विकास करने के लिए शिष्य को वे एक मौका देते हं।
भवसागर में डूबते हुए शिष्य के लिए गुरुदेव जीवन संरक्षक नौका है।
गुरुदेव के चिन्तन से सुख, आन्तरिक शक्ति, मन की शांति और आनन्द प्राप्त होते हैं।
मन्त्रचैतन्य अर्थात् मन्त्र की गूढ़ शक्ति गुरुदेव की दीक्षा के द्वारा ही जागृत होती है।
गुरुदेव की सेवा किये बिना किया हुआ तप, तीर्थाटन और शास्त्रों का अध्ययन यह समय का दुर्व्यय मात्र है।
गुरुदक्षिणा दिये बिना गुरुदेव से किया हुआ पवित्र शास्त्रों का अभ्यास यह समय का दुर्व्यय मात्र है।
गुरुदेव की इच्छाओं को परिपूर्ण किये बिना वेदान्त के ग्रन्थ, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र का अभ्यास करने में कल्याण नहीं होता, ज्ञान नहीं मिलता।
चाहे जितने दार्शनिक ग्रन्थ पढ़ लो, समस्त विश्व का प्रवास करके व्याख्यान दो, हजारों वर्षों तक हिमालय की गुफा में रहो, वर्षों तक प्राणायाम करो, जीवनपर्यन्त शीर्षासन करो, फिर भी गुरुदेव की कृपा के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता।
गुरुदेव के चरणकमलों का आश्रय लेने से जो आनन्द का अनुभव होता है उसकी तुलना में त्रिलोकी का सुख कुछ भी नहीं है।
गुरुदेव की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला सीधे नर्क में जाता है।
यदि तुम सच्चे हृदय से आतुरतापूर्वक ईश्वर की प्रार्थना करोगे तो ईश्वर गुरु के स्वरूप में तुम्हारे पास आयेंगे।
सच्चे गुरु से अधिक प्रेमपूर्ण, अधिक हितैषी, अधिक कृपालु और अधिक प्रिय व्यक्ति इस विश्व में कोई नहीं हो सकता।
सत्संग का अर्थ है गुरु का सहवास। इस सत्संग के बिना मन ईश्वर की ओर नहीं मुड़ता।
गुरुदेव के साथ किया हुआ एक पल का सत्संग भी लाखों वर्ष किये हुए तप से कई गुना श्रेष्ठ है।
हे साधक ! मनमुखी साधना कभी नहीं करो। पूर्ण श्रद्धा एवं भक्तिभाव से युक्त गुरुमुखी साधना करो।
तुम्हारे बदले में गुरु साधना नहीं करेंगे। साधना तो तुमको स्वयं ही करनी पड़ेगी।
गुरुदेव तुमको उठाकर समाधि में रख देंगे ऐसे चमत्कार की अपेक्षा न करो। तुम खुद ही कठिन साधना करो। भूखे आदमी को स्वयं ही खाना पड़ता है।
गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पवित्र और जीवनपर्यन्त का है यह बात ठीक-ठीक समझ लो।
अपने गुरुदेव की क्षतियाँ न देखो। अपनी क्षतियाँ देखो और उन्हें दूर करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करो।
गुरुपद एक भयंकर शाप है।
सदगुरुदेव के चरणामृत से संसारसागर सूख जाता है और मनुष्य आत्म-संपदा को प्राप्त कर सकता है।
सुषुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए गुरुदेव की अपरिहार्य आवश्यकता है।
सन्त, महात्मा और सदगुरुदेव के सत्संग का एक अवसर भी मत चूको।
अहंभाव का नाश करना यह शिष्यत्व का प्रारम्भ है।
शिष्यत्व की कुंजी है ब्रह्मचर्य और गुरुसेवा।
शिष्यत्व का चोला है गुरुभक्ति।
सदगुरुदेव के प्रति सम्पूर्णतया आज्ञापालन का भाव ही शिष्यत्व की नींव है।
गुरुदेव से मिलने की उत्कट इच्छा और उनकी सेवा करने की तीव्र आकांक्षा यह मुमुक्षुत्व की निशानी है।
ब्रह्मज्ञान अति सूक्ष्म है। संशय पैदा होते हैं। उनकी निवृत्ति करने के लिए और मार्ग दिखाने के लिए ब्रह्मज्ञानी गुरु की आवश्यकता अनिवार्य है।
गुरुदेव के समक्ष हररो अपने दोष कबूल करो। तभी तुम इन दुन्यावी दुर्बलताओं से ऊपर उठ सकोगे।
दृष्टि, स्पर्श, विचार या शब्द के द्वारा गुरु अपने शिष्य का परिवर्तन कर सकते है।
गुरु तुम्हारे लिए विद्युत की डोली हैं। वे तुम्हें पूर्णता के शिखर पर पहुँचाते हैं।
जिससे आत्म-साक्षात्कार को गति मिले, जिससे जागृति प्राप्त हो उसे गुरुदीक्षा कहते हैं।
यदि तुम गुरु में ईश्वर को नहीं देख सकते तो और किसमें देख सकोगे ?
शिष्य जब गुरु के सान्निध्य में रहते हुए अपने गुरुबन्धुओं के अनुकूल होना नहीं जानता है तब घर्षण होता है। इससे गुरु नाराज होते हैं।
अधिक निद्रा करने वाला, जड़, स्थूल देहवाला, निष्क्रिय, आलसी और मूर्ख मन का शिष्य, गुरु सन्तुष्ट हों, इस प्रकार की सेवा नहीं कर सकता।
जिस शिष्य में तीव्र लगन का गुण होता है वह अपने गुरुदेव की सेवा में सफल होता है। उसे आबादी और अमरत्व प्राप्त होते हैं।
अपने पावन गुरुदेव के प्रति अच्छा बर्ताव परम सुख के धाम का पासपोर्ट है।
गुरुदक्षिणा देने से असंख्य पापों का नाश होता है।
अपने गुरुदेव के प्रति निभायी हुई सेवा यह नैतिक टॉनिक है। इससे मन और हृदय दैवी गुणों से भरपूर होते हैं, पुष्ट होते हैं।
अपने गुरु की सेवा करते करते, गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते करते जो सब कठिनाईयों के सहन करता है वह अपने प्राकृत स्वभाव को जीत लेता है।
कृतघ्न शिष्य इस दुनियाँ में हतभागी है, दुःखी है। उसका भाग्य दयनीय, शोचनीय और अफसोसजनक है।
सच्चे शिष्य को चाहिए कि वह अपने पूज्य गुरुदेव के चरणकमलों की प्रतिष्ठा अपने हृदय के सिंहासन पर करे।
गुरुदेव को मिलते ही शिष्य का सर्वप्रथम पावन कर्तव्य है कि उनको खूब नम्र भाव से प्रणाम करे।
यदि तुमको नल से पानी पीना हो तुम्हें नीचे झुकना पड़ेगा। उसी प्रकार यदि तुम्हें गुरुदेव के पावन मुखारविन्द से बहते हुए अमरत्व के पुण्यअमृत का पान करना हो तो तुम्हें नम्रता का प्रतीक होना पड़ेगा।
सदगुरुदेव के चरणकमलों की पूजा के लिए नम्रता के पुष्प से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई पुष्प नहीं है।
गुरुदेव के आदेशों में शंका न करना और उनके पालन में  आलस्य न करना यही गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने का दिखावा करता है। सच्चा शिष्य भीतर के शुद्ध प्रेम से गुरु की आज्ञा का पालन करता है।
गुरुदेव के वचनों में विश्वास रखना यह अमरत्व के द्वार खोलने की गुरुचाबी है।
जो मनुष्य विषयवासना का दास है वह गुरु की सेवा और आत्म समर्पण नहीं कर सकता है। फलतः वह संसार के कीचड़ से अपने को नहीं बचा सकता है।
गुरुदेव को धोखा देना मानों अपनी ही कब्र खोदना।
गुरुकृपा अणुशक्ति से भी ज्यादा शक्तिमान है।
शिष्य के ऊपर जो आपत्तियाँ आती हैं वे गुप्त वेश में गुरु के आशीर्वाद हैं।
गुरुदेव के चरणकमलों में आत्म-समर्पण करना यह सच्चे शिष्य का जीवनमंत्र होना चाहिए। साक्षात् ईश्वर-स्वरूप सदगुरुदेव के चरण-कमलों में आत्म-समर्पण करोगे तो वे तुम्हें भयस्थानों से बचायेंगे, साधना में तुम्हें प्रेरणा देंगे, अन्तिम लक्ष्य तक तुम्हारे पथप्रदर्शक बने रहेंगे।
सदगुरुदेव के प्रति श्रद्धा एक ऐसी वस्तु है कि जो प्राप्त करने के बाद अन्य किसी चीज की प्राप्ति करना शेष नहीं रहता। इस श्रद्धा के द्वारा निमिष मात्र में तुम परम पदार्थ को प्राप्त कर लोगे।
साधक यदि श्रद्धा और भक्तिभाव से अपने गुरुदेव की सेवा नहीं करेगा तो जैसे कच्चे घड़े में से पानी टपक जाता है वैसे उसके व्रत-जप-तप सबके फल टपक जायेंगे।
शिष्य को चाहिए कि वह गुरुदेव को साक्षात ईश्वर माने। उनको मानव कभी नहीं माने।
जिससे गुरुचरणों के प्रति भक्तिभाव बड़े वह परम धर्म है।
नियम का अर्थ है गुरुमंत्र का जप, गुरुसेवा के दौरान तपश्चर्या गुरुवचन में श्रद्धा, गुरुदेव की सेवा, संतोष, पवित्रता, शास्त्रों का अध्ययन, गुरुभक्ति और गुरु की शरणागति।
तितिक्षा का अर्थ है गुरुदेव के आदेशों का पालन करते दुःख सहना।
त्याग का अर्थ है गुरुदेव के द्वारा निषिद्ध कर्मों का त्याग।
भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी से कहते हैं - 'अति सौभाग्य से प्राप्त यह मानवदेह मजबूत नौका जैसा है। गुरु इस नौका का सुकान सँभालते हैं। इस नौका को चलानेवाला मैं (ब्रह्म) अनुकूल पवन हूँ। जो मनुष्य ऐसी नौका, ऐसे सुकानी और ऐसा अनुकूल पवन के होते हुए भी भवसागर पार करने का पुरुषार्थ नहीं करता वह सचमुच आत्मघाती है।'
गुरुदेव की अंगत सेवा यह सर्वोत्तम योग है।
क्रोध, लोभ, असत्य, क्रूरता, याचना, दंभ, झगड़ा, भ्रम, निराशा, शोक, दुःख, निद्रा, भय, आलस्य ये सब तमोगुण हैं। अनेकों जन्म लेने के बावजूद भई इनको जीता नहीं जाता। परंतु श्रद्धा एवं भक्ति से की हुई गुरुदेव की सेवा इन सब दुर्गुणों को नष्ट करती है।
साधक को चाहिए कि वह स्त्री का सहवास न करे। स्त्री सहवास के जो लालची हों उनका संभ भी न करे क्योंकि उससे मन क्षुब्ध हो जाता है। मन जब क्षुब्ध होता है तब शिष्य भक्तिभाव और श्रद्धापूर्वक गुरु की सेवा नहीं कर सकता है।
शिष्य यदि गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता तो उसकी साधना व्यर्थ है।
जिस प्रकार अग्नि के पास बैठने से ठंड, भय, अंधकार दूर होते हैं उसी प्रकार सदगुरु के सान्निध्य में रहने से अज्ञान, मृत्यु का भय और सब अनिष्ट होते हैं।
गुरुसेवा रूपी तीक्षण तलवार और ध्यान की सहायता से शिष्य मन, वचन, प्राण और देह के अहंकार को छेद देता है और सब रागद्वेष से मुक्त होकर इस संसार में स्वेच्छापूर्वक विहार करता है।
ज्ञान का प्रकाश देने वाली पवित्र गुरुगीता का जो अभ्यास करता है वह सचमुच विशुद्ध होता है और उसको मोक्ष मिलता है।
जैसे सूर्योदय होने से कुहरा नष्ट होता है वैसे ही परब्रह्म परमात्मा स्वरूप सदगुरुदेव के अज्ञाननाशक सान्निध्य में सब संशय निवृत्त हो जाते हैं।
साक्षात् ईश्वर जैसे सर्वोच्च पद को प्राप्त सदगुरु की जय जयकार हो। गुरुदेव के यश को गानेवाले धर्मशास्त्रों की जय जयकार हो। ऐसे सदगुरु का परम आश्रय जिसने लिया उस शिष्य की जय जयकार हो।
गुरुकृपा का लघुतम बिन्दु भी इस संसार के कष्ट से मनुष्य को मुक्त करने के लिए काफी है।
जो शिष्य अहंकार से भरा हुआ है और गुरु के वचन नहीं सुनता, आखिर में उसका नाश ही होता है।
आत्म-साक्षात्कारी सदगुरुदेव और ईश्वर में तनिक भी भेद नहीं है। दोनों एक, अभिन्न और अद्वैत हैं।
गुरुदेव का सान्निध्य साधक के लिए एक सलामत नौका है जो अंधकार के उस पार निर्भयता के किनारे पहुँचाती है। जो साधक अपने साधनापथ में ईमानदारी से और सच्चे हृदय से प्रयत्न करता है और ईश्वर साक्षात्कार के लिए तड़पता है उस योग्य शिष्य पर गुरुदेव की कृपा उतरती है।
आजकल शिष्य ऐश-आराम का जीवन जीते हुए और गुरु की आज्ञा का पालन किये बिना उनकी कृपा की आकांक्षा रखते हैं।
आत्म-साक्षात्कारी सदगुरुदेव की सेवा करने से तुम्हारे मोक्ष की समस्या अवश्य हल हो जायेगी।
राग द्वेष से मुक्त ऐसे सदगुरु का संग करने से मनुष्य आसक्ति रहित होता है। उसे वैराग्य प्राप्त होता है।
अपने मन पर संयम रखकर जो योगाभ्यास नहीं कर सकते हैं उनके लिए भक्तिपूर्वक गुरुदेव की सेवा करना ही एक मात्र उपाय है।
गुरुदेव शिष्य की कठिनाईयों और अवरोधों को जानते हैं। क्योंकि वे त्रिकालज्ञानी हैं। मनोमन उनकी प्रार्थना करो। वे तुम्हारे अवरोध दूर कर देंगे।
गुरुदेव की कृपा तो हरदम बरसती ही रहती है। शिष्य को चाहिए की वह केवल उनके वचनों में श्रद्धा रखे और उनके आदेशों का पालन करे।
सच्चे शिष्य के लिए गुरुवचन ही कायदा है।
गुरु का दास होना यह ईश्वर के समीप होने के बराबर है।
दंभी गुरुओं से सावधान रहना। ऐसे गुरु शास्त्रों को रट लेते हैं और शिष्यों को उनमें से दृष्टान्त भी देते हैं पर अपने दिये हुए उपदेशों का स्वयं आचरण नहीं कर सकते।
आलसी शिष्य को गुरुकृपा नहीं मिलती। राजसी स्वभाव के शिष्य को लोक कल्याण करने वाले गुरुदेव के कार्य समझ में नहीं आते।
किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पहले शिष्य को गुरुदेव की सलाह और आज्ञा लेनी चाहिए।
मुक्तात्मा गुरुदेव की सेवा, उनके उपदिष्ट शास्त्रों का अभ्यास, उनकी परम पावन मूर्ति का ध्यान यह गुरुभक्तियोग साधने के सुवर्णमार्ग हैं।
जो शिष्य नाम, कीर्ति, सत्ता, धन और विषयवासना के पीछे दौड़ता है उसके हृदय में सदगुरुदेव के पावन चरणकमलों के प्रति भक्तिभाव नहीं जाग सकता।
ऐसे वैसे किसी भी व्यक्ति को गुरु के रुप में नहीं स्वीकारना चाहिए और एकबार गुरु के रूप में स्वीकार करने के बाद किसी भी संयोगवश उनका त्याग नहीं करना चाहिए।
जब योग्य और अधिकारी साधक आध्यात्मिक मार्ग की दीक्षा लेने के लिए गुरु की खोज में जाता है तब ईश्वर उसके समक्ष गुरु के रूप में स्वयं प्रगट होते हैं और दीक्षा देते हैं।
जो शिष्य गुरुदेव के साथ एकता या तादात्म्य साधना चाहते हैं उनको संसार की क्षणभंगुर चीजों के प्रति संपूर्ण वैराग्य रखना चाहिए।
जो उच्चतर ज्ञान चित्त में आविर्भूत होता है वह विचारों के रूप में नहीं अपितु शक्ति के रूप में होता है। ऐसा ज्ञान देने वाले गुरु चित्त के साथ एक रूप होते हैं।
शिष्य जब उच्चतर दीक्षा के योग्य बनता है तब गुरु स्वयं उसको योग के रहस्यों की दीक्षा देते हैं।
गुरु के प्रति श्रद्धा पर्वतों को हिला सकती है। गुरुकृपा चमत्कार पैदा कर सकती है। हे वीर ! निःसंशय होकर आगे बढ़ो।
परमात्मा के साथ एकरूप बने हुए महान आध्यात्मिक महापुरुष की जो सेवा करता है वह संसार के कीचड़ को पार कर सकता है।
तुम यदि सांसारिक मनोवृत्तिवाले लोगों की सेवा करोगे तो तुमको सांसारिक लोगों के गुण मिलेंगे। परंतु जो निरन्तर परम सुख में निमग्न रहते हैं, जो सर्वगुणों के धाम हैं, जो साक्षात् प्रेमस्वरूप हैं ऐसे सदगुरुदेव के चरणकमलों की सेवा करोगे तो तुमको उनके गुण प्राप्त होंगे। अतः उन्हीं की सेवा करो, सेवा करो, बस सेवा करो।

3 comments:

  1. Pujya Bapuji ki itni rare aur sunder photo aap laate kahan se hain?????? sach mein ye bahut hi durlabh hain. main to sachmuch isi intejaar mein rehti hun ki kab is blog mein nayi posting ho aur main ek naye roop me apne sadguru ko dekh sakun. Isse sab sadhkon ko bahut labh hota hai. sadho sadho sadho.....

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  2. Waah, Ek Guru aur shishay ke samandh ko is blog mein bahut ache tareeke se btaya gaya hai. Actually, Guru aur disciple ka relation to seva aur samarpan ka hi hota hai, isse hm gurukripa pachaane me safal ho sakte hain.

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  3. wahji, apne to kamal kar diya, sewa or sadhna to do pankh h jiske sahare sadhak apne sadhya tak pahuchte h. Apke is post me sewa ki khub mahima batai gai h jisse hamare andar sewa ka bhav jage, hm sewa k mehetv ko samjhe or apna jeevan sewa me lagae, ye bhav jagta h. Sewa se to sach me dusre ko kya milta hoga hume hi kitna kuch milta h. Apki aisi posting ki sewa ko pranam h, ap aise hi postings karte rehna or hamari sewa-bhakti badhane me utsahit karte rehna. hariom..........

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