पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Sunday, July 18, 2010



व्यासपूर्णिमा पुस्तक से - Vyaas-purnima pustak se

अन्य देवी देवताओं की पूजा के बाद भी किसी की पूजा करना शेष रह जाता है लेकिन सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सदगुरू की पूजा के बाद और किसी की पूजा करना शेष नहीं रहता। गुरू वे हैं जो शिष्य को सदा के लिए शिष्य न रखे, शिष्य को संसार में डूबने वाला न रखें, शिष्य को जन्मने और मरने वाले न रखें। शिष्य को जीव में से ब्रह्म बनाने का मौका खोजते हों वे गुरू हैं, वे परम गुरू हैं, वे सदगुरू हैं। सच्चे गुरू शिष्य को शिष्यत्व से हटाकर, जीवत्व से हटाकर, ब्रह्मत्व में आराम और चैन दिलाने के लिए, ब्रह्मरस की परम तृप्ति और परमानन्द की प्राप्ति कराने की ताक में रहते हैं। ऐसे गुरू की आज्ञा को स्वीकार कर जो चल पड़े वह सच्चा शिष्य है।
दुनियाँ के सब धर्मग्रन्थ, संप्रदाय, मजहब रसातल में चले जायें फिर भी पृथ्वी पर एक सदगुरू और एक सत्शिष्य हैं तो धर्म फिर से प्रकट होगा, शास्त्र फिर से बन जाएंगे, क्योंकि सदगुरू शिष्य को अमृत-उपदेश दिये बिना नहीं रहेंगे। और वही अमृत-उपदेश शास्त्र बन जायेगा। जब तक पृथ्वी पर एक भी ब्रह्मवेत्ता सदगुरू हैं और उनको ठीक से स्वीकार करने वाला सत्शिष्य है तब तक धर्मग्रन्थों का प्रारंभ फिर से हो सकता है। मानव जाति को जब तक ज्ञान की पिपासा रहेगी तब तक ऐसे सदगुरूओं का आदर-पूजन बना रहेगा।
प्राचीन काल में उन महापुरूषों को इतना आदर मिलता था किः
गुरू गोविन्द दोनों खड़े किसको लागूं पाय।
बलिहारी गुरूदेव की गोविन्द दियो दिखाय।।
वे लोग अपने हृदय में गोविन्द से भी बढ़कर स्थान अपने गुरू को देते थे। गोविन्द ने जीव करके पैदा किया लेकिन गुरू ने जीव में से ब्रह्म करके सदा के लिए मुक्त कर दिया। माँ-बाप देह में जन्म देते हैं लेकिन गुरू उस देह में रहे हुए विदेही का साक्षात्कार कराके परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित कराते हैं, अपने आत्मा की जागृति कराते हैं।
न्यायाधीश न्याय की कुर्सी पर बैठकर, न्याय तो कर सकता है लेकिन न्यायालय की तौहीन नहीं कर सकता, उससे न्यायालय का अपमान नहीं किया जाता। उस ऋषिपद का, गुरूपद का उपयोग करके हम संसारी जाल से निकलकर परमात्म-प्राप्ति कर सकते हैं। ईश्वर अपना अपमान सह लेते हैं लेकिन गुरू का अपमान नहीं सहता ।
देवर्षि नारद ने वैकुण्ठ में प्रवेश किया। भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी उनका खूब आदर करने लगे। आदिनारायण ने नारदजी का हाथ पकड़ा और आराम करने को कहा। एक तरफ भगवान विष्णु नारद जी की चम्पी कर रहे हैं और दूसरी तरफ लक्ष्मी जी पंखा हाँक रही हैं। नारद जी कहते हैं- "भगवान ! अब छोड़ो। यह लीला किस बात की है ? नाथ ! यह क्या राज समझाने की युक्ति है ? आप मेरी चम्पी कर रहे हैं और माता जी पंखा हाँक रही हैं ?"
"नारद ! तू गुरूओं के लोक से आया है। यमपुरी में पाप भोगे जाते हैं, वैकुण्ठ में पुण्यों का फल भोगा जाता है लेकिन मृत्युलोक में सदगुरू की प्राप्ति होती है और जीव सदा के लिए मुक्त हो जाता है। मालूम होता है, तू किसी गुरू की शरण ग्रहण करके आया है।"
नारदजी को अपनी भूल महसूस कराने के लिए भगवान ये सब चेष्टाएँ कर रहे थे।
नारद जी ने कहाः "प्रभु ! मैं भक्त हूँ लेकिन निगुरा हूँ। गुरू क्या देते हैं ? गुरू का माहात्म्य क्या होता है यह बताने की कृपा करो भगवान !"
"गुरू क्या देते हैं..... गुरु का माहात्म्य क्या होता है यह जानना हो तो गुरूओं के पास जाओ। यह वैकुण्ठ है, खबरदार....."
जैसे पुलिस अपराधियों को पकड़ती है, न्यायाधीश उन्हें नहीं पकड़ पाते, ऐसे ही वे गुरूलोग हमारे दिल से अपराधियों को, काम-क्रोध-लोभ-मोहादि विकारों को निकाल निकाल कर निर्विकार चैतन्य स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति में सहयोग देते हैं और शिष्य जब तक गुरूपद को प्राप्त नहीं होता है तब तक उस पर निगरानी रखते रखते जीव को ब्रह्मयात्रा कराते रहते हैं।
"नारद ! जा, तू किसी गुरू की शरण ले। बाद में इधर आ।"
देवर्षि नारद गुरू की खोज करने मृत्युलोक में आये। सोचा कि मुझे प्रभातकाल में जो सर्वप्रथम मिलेगा उसको मैं गुरू मानूँगा। प्रातःकाल में सरिता के तीर पर गये। देखा तो एक आदमी शायद स्नान करके आ रहा है। हाथ में जलती अगरबत्ती है। नारद जी ने मन ही मन उसको गुरू मान लिया। नजदीक पहुँचे तो पता चला कि वह माछीमार है, हिंसक है। (हालाँकि आदिनारायण ही वह रूप लेकर आये थे।) नारदजी ने अपना संकल्प बता दिया किः "हे मल्लाह ! मैंने तुमको गुरू मान लिया है।"
मल्लाह ने कहाः "गुरू का मतलब क्या होता है ? हम नहीं जानते गुरू क्या होता है ?"
"गु माने अन्धकार। रू माने प्रकाश। जो अज्ञानरूपी अन्धकार को हटाकर ज्ञानरूपी प्रकाश कर दें उन्हें गुरू कहा जाता है। आप मेरे आन्तरिक जीवन के गुरू हैं।" नारदजी ने पैर पकड़ लिये।
"छोड़ो मुझे !" मल्लाह बोला।
"आप मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लो गुरूदेव!"
मल्लाह ने जान छुड़ाने के लिए कहाः "अच्छा, स्वीकार है, जा।"
नारदजी आये वैकुण्ठ में। भगवान ने कहाः
"नारद ! अब निगुरा तो नहीं है ?"
"नहीं भगवान ! मैं गुरू करके आया हूँ।"
"कैसे हैं तेरे गुरू ?"
"जरा धोखा खा गया मैं। वह कमबख्त मल्लाह मिल गया। अब क्या करें ? आपकी आज्ञा मानी। उसी को गुरू बना लिया।"
भगवान नाराज हो गयेः "तूने गुरू शब्द का अपमान किया है।"
न्यायाधीश न्यायालय में कुर्सी पर तो बैठ सकता है, न्यायालय का उपयोग कर सकता है लेकिन न्यायालय का अपमान तो न्यायाधीश भी नहीं कर सकता। सरकार भी न्यायालय का अपमान नहीं करती।
भगवान बोलेः "तूने गुरूपद का अपमान किया है। जा, तुझे चौरासी लाख जन्मों तक माता के गर्भों में नर्क भोगना पड़ेगा।"
नारद रोये, छटपटाये। भगवान ने कहाः "इसका इलाज यहाँ नहीं है। यह तो पुण्यों का फल भोगने की जगह है। नर्क पाप का फल भोगने की जगह है। कर्मों से छूटने की जगह तो वहीं है। तू जा उन गुरूओं के पास मृत्युलोक में।"
नारद आये। उस मल्लाह के पैर पकड़ेः "गुरूदेव ! उपाय बताओ। चौरासी के चक्कर से छूटने का उपाय बताओ।"
गुरूजी ने पूरी बात जान ली और कुछ संकेत दिये। नारद फिर वैकुण्ठ में पहुँचे। भगवान को कहाः "मैं चौरासी लाख योनियाँ तो भोग लूँगा लेकिन कृपा करके उसका नक्शा तो बना दो ! जरा दिखा तो दो नाथ ! कैसी होती है चौरासी ?
भगवान ने नक्शा बना दिया। नारद उसी नक्शे में लोटने-पोटने लगे।
"अरे ! यह क्या करते हो नारद ?"
"भगवान ! वह चौरासी भी आपकी बनाई हुई है और यह चौरासी भी आपकी ही बनायी हुई है। मैं इसी में चक्कर लगाकर अपनी चौरासी पूरी कर रहा हूँ।"
भगवान ने कहाः "महापुरूषों के नुस्खे भी लाजवाब होते हैं। यह युक्ति भी तुझे उन्हीं से मिली नारद ! महापुरूषों के नुस्खे लेकर जीव अपने अतृप्त हृदय में तृप्ति पाता है। अशान्त हृदय में परमात्म शान्ति पाता है। अज्ञान तिमिर से घेरे हुए हृदय में आत्मज्ञान का प्रकाश पाता है।"
जिन-जिन महापुरूषों के जीवन गुरूओं का प्रसाद आ गया है वे ऊँचे अनुभव को, ऊँची शान्ति को प्राप्त हुए हैं। हमारी क्या शक्ति है कि उन महापुरूषों का, गुरूओं का बयान करे ? वे तत्त्ववेत्ता पुरूष, वे ज्ञानवान पुरूष जिसके जीवन में निहार लेते हैं, ज्ञानी संत जिसके जीवन में जरा-सी मीठी नजर डाल देते हैं उसका जीवन मधुरता के रास्ते चल पड़ता है।
ऐसे परम पुरूषों की हम क्या महिमा गायें ? जिन्होंने जितना सुना, जितना जाना, जितना वह कह सके उतना कहा लेकिन उन ज्ञानवान पुरूषों की महिमा का पूरा गान कोई नहीं कर सका। लोग गाते थे, गा रहे हैं और गाते ही रहेंगे। श्रीकृष्ण और श्रीरामचन्द्रजी अपने गुरूओं के द्वार पर जाकर ब्रह्मविद्या का पान करते थे। व्यासपुत्र शुकदेवजी ने जनक से ज्ञान पाया। जनक ने अष्टावक्र से पाया।
एक सत्शिष्य ने गौड़देश से पैदल चलकर आत्मज्ञान की जिज्ञासा व्यक्त की, शुकदेवजी के चरणों में आत्मलाभ हुआ तब उनका नाम गौड़पादाचार्य। गौड़पादाचार्या से आत्मलाभ पाया गोविन्दपादाचार्या ने। वे भगवान गोविन्दपादाचार्य नर्मदा किनारे ओंकारेश्वर तीर्थ में एकान्त अरण्य आत्मलाभ प्राप्त करके उसी आत्मशान्ति में, उसी अलौकिक परब्रह्म परमात्मा की शान्ति में ध्यानमग्न थे।
कई संन्यासियों को पता चला कि भगवान गोविन्दपादाचार्य परब्रह्म परमात्मा को पाये हुए आत्म-साक्षात्कारी महापुरूष हैं। उन्हें अपने स्वरूप का बोध हो गया है। उन्होंने अपने दिल में दिलबर का आराम पाया है। नर्मदा किनारे तप करने वाले तपस्वी गोविन्दपादाचार्य के दर्शन करने के लिए वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। रहते रहते बूढ़े हो गये लेकिन गोविन्दपादाचार्य की समाधि नहीं खुली। इतने में दक्षिण भारत के केरल प्रान्त से पैदल चलते हुए दो महीने से भी अधिक समय तक यात्रा करने के बाद शंकर नाम का बालक पहुँचा उन संन्यासियों के पास।
"मैंने नाम सुना है भगवान गोविन्दपादाचार्य का। वे पूज्यपाद आचार्य कहाँ रहते हैं ?"
संन्यासियों ने बताया किः "हम भी उनके दर्शन का इन्तजार करते-करते बूढ़े हो चले। उनकी समाधि खुले, उनकी अमृत बरसाने वाली निगाहें हम पर पड़ें, उनके ब्रह्मानुभव के वचन हमारे कानों में पड़े और कान पवित्र हों इसी इन्तजार में हम भी नर्मदा किनारे अपनी कुटियाएँ बनाकर बैठे हैं।"
संन्यासियों ने उस बालक को निहारा। वह बड़ा तेजस्वी लग रहा था। इस बाल संन्यासी का सम्यक् परिचय पाकर उनका विस्मय बढ़ गया। कितनी दूर केरल प्रदेश ! यह बच्चा वहाँ से अकेला ही आया है श्रीगुरू की आश में। जब उन्होंने देखा कि इस अल्प अवस्था में ही वह भाष्य समेत सभी शास्त्रों में पारंगत है और इसके फलस्वरूप उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया है तो उन सबका मन प्रसन्नता से भर गया। मुग्ध होते हुए पूछाः
"क्या नाम है बेटे ?"
"मेरा नाम शंकर है।"
बच्चे की ओजस्वी वाणी और तीव्र जिज्ञासा देखकर उन्होंने समाधिस्थ बैठे महायोगी गुरूवर्य श्री गोविन्दपादाचार्य के बारे में कुछ बातें कही। वह निर्दोष नन्हा बालक भगवान गोविन्दपादाचार्य के दर्शन के लिए तड़प उठा। संन्यासियों ने कहाः
"वह दूर जो गुफा दिखाई दे रही है उसमें वे समाधिस्थ हैं। अन्धेरी गुफा में दिखाई नहीं पड़ेगा इसलिए यह दीपक ले जा।"
दीया जलाकर उस बालक ने गुफा में प्रवेश किया। विस्मय से विमुग्ध होकर देखा तो एक अति दीर्घकाय, विशाल-भाल-प्रदेशवाले, शान्त मुद्रा, लम्बी जटा और कृश देहवाले फिर भी पूरी आध्यात्मिकता के तेज से आलोकित एक महापुरूष पद्मासन में समाधिस्थ बैठे थे। शरीर की त्वचा सूख चुकी थी फिर भी उनका शरीर ज्योतिर्मय था। भगवान का दर्शन करते ही शंकर का रोम-रोम पुलकित हो उठा। मन एक प्रकार से अनिर्वचनीय दिव्यानन्द से भर उठा। अबाध अश्रुजल से उनका वक्षः स्थल प्लावित हो गया। उसकी यात्रा का परिश्रम सार्थक हो गया। सारी थकान उतर गयी। करबद्ध होकर वे स्तुति करने लगेः
"हे प्रभो ! आप मुनियों में श्रेष्ठ हैं। आप शरणागतों को कृपाकर ब्रह्मज्ञान देने के लिए पतंजली के रूप में भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं। महादेव के डमरू की ध्वनि के समान आपकी भी महिमा अनंत एवं अपार है। व्याससुत शुकदेव के शिष्य गौड़पाद से ब्रह्मज्ञान का लाभ पाकर आप यशस्वी हुए हैं। मैं भी ब्रह्मज्ञान-प्राप्ति की कामना से आपके श्रीचरणों में आश्रय की भिक्षा माँगता हूँ। समाधि-भूमि से व्युत्थित होकर इस दीन शिष्य को ब्रह्मज्ञान प्रदान कर आप कृतार्थ करें।"
इस सुललित भगवान की ध्वनि से गुफा मुखरित हो उठी। तब अन्य संन्यासी भी गुफा में आ इकट्ठे हुए। शंकर तब तक स्तवगान में ही मग्न थे। विस्मय विमुग्ध चित्त से सबने देखा कि भगवान गोविन्दपाद की वह निश्चल निस्पन्द देह बार-बार कम्पित हो रही है। प्राणों का स्पन्दन दिखाई देने लगा। क्षणभर में ही उन्होंने एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर चक्षु उन्मीलित किये।
शंकर ने गोविन्दपादाचार्य भगवान को साष्टांग प्रणाम किया। दूसरे संन्यासी भी योगीश्वर के चरणों में प्रणत हुए। आनंदध्वनि से गुफा गुंजित हो उठी। तब प्रवीण संन्यासीगण योगीराज को समाधि से सम्पूर्ण रूप से व्यथित कराने के लिए यौगिक प्रकियाओं में नियुक्त हो गये। क्रम से योगीराज का मन जीवभूमि पर उतर आया। यथा समय आसन का परित्याग कर वे गुफा से बाहर निकले।
योगीराज की सहस्रों वर्षों की समाधि एक बालक संन्यासी के आने से छूट गई है, यह संवाद द्रुतगति से चतुर्दिक फैल गया। सुदूर स्थानों से यतिवर की दर्शनाकांक्षा से अगणित नर-नारियों ने आकर ओंकारनाथ को एक तीर्थक्षेत्र में परिणत कर दिया। शंकर का परिचय प्राप्त कर गोविन्दापादाचार्य ने जान लिया कि यही वह शिवावतार शंकर है, जिसे अद्वैत ब्रह्मविद्या का उपदेश करने के लिए हमने सहस्र वर्षों तक समाधि में अवस्थान किया और अब यही शंकर वेद-व्यास रचित ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखकर जगत में अद्वैत ब्रह्मविद्या का प्रचार करेगा।
तदनंतर एक शुभ दिन श्रीगोविन्दपादाचार्य ने शंकर को शिष्य रूप में ग्रहण कर लिया और उसे योगादि की शिक्षा देने लगे। अन्यान्य संन्यासियों ने भी उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। प्रथम वर्ष उन्होंने शंकर को हठयोग की शिक्षा दी। वर्ष पूरा होने के पूर्व ही शंकर ने हठयोग में पूर्ण सिद्ध प्राप्त कर ली। द्वितीय वर्ष में शंकर राजयोग में सिद्ध हो गये। हठयोग और राजयोग की सिद्धि प्राप्ति करने के फलस्वरूप शंकर बहुत बड़ी अलौकिक शक्ति के अधिकारी बन गये। दूरश्रवण, दूरदर्शन, सूक्ष्म देह से व्योममार्ग में गमन, अणिमा, लघिमा, देहान्तर में प्रवेश एवं सर्वोपरि इच्छामृत्यु शक्ति के वे अधिकारी हो गये। तृतीय वर्ष में गोविन्दपादाचार्य अपने शिष्य को विशेष यत्नपूर्वक ज्ञानयोग की शिक्षा देने लगे। श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, धारणा, समाधि का प्रकृत रहस्य सिखा देने के बाद उन्होंने अपने शिष्य को साधनकर्मानुसार अपरोक्षनुभूति के उच्च स्तर में दृढ़ प्रतिष्ठित कर दिया।
ध्यानबल से समाधिस्थ होकर नित्य नव दिव्यानुभूति से शंकर का मन अब सदैव एक अतीन्द्रिय राज्य में विचरण करने लगा। उनकी देह में ब्रह्मज्योति प्रस्फुटित हो उठी। उनके मुखमण्डल पर अनुपम लावण्य और स्वर्गीय हास झलकने लगा। उनके मन की सहज गति अब समाधि की ओर थी। बलपूर्वक उनके मन को जीवभूमि पर रखना पड़ता था। क्रमशः उनका मन निर्विकल्प भूमि पर अधिरूढ़ हो गया।
गोविन्दपादाचार्य ने देखा कि शंकर की साधना और शिक्षा अब समाप्त हो चुकी है। शिष्य उस ब्राह्मी स्थिति में उपनीत हो गया है जहाँ प्रतिष्ठित होने से श्रुति कहती हैः
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।
यह परावर ब्रह्म दृष्ट होने पर दृष्टा का अविद्या आदि संस्काररूप हृदयग्रन्थि-समूह नष्ट हो जाता है एवं (प्रारब्धभिन्न) कर्मराशि का क्षय होने लगता है। शंकर अब उसी दुर्लभ अवस्था में प्रतिष्ठित हो गये।
वर्षा ऋतु का आगमन हुआ। नर्मदा-वेष्टित ओंकारनाथ की शोभा अनुपम हो गयी। कुछ दिनों तक अविराम दृष्टि होती रही। नर्मदा का जल क्रमशः बढ़ने लगा। सब कुछ जलमय ही दिखाई देने लगा। ग्रामवासियों ने पालतू पशुओं समेत ग्राम का त्यागकर निरापद उच्च स्थानों में आश्रय ले लिया।
गुरूदेव कुछ दिनों से गुफा में समाधिस्थ हुए बैठे थे। बाढ़ का जल बढ़ते-बढ़ते गुफा के द्वार तक आ पहुँचा। संन्यासीगण गुरूदेव का जीवन विपन्न देखकर बहुत शंकित होने लगे। गुफा में बाढ़ के जल का प्रवेश रोकना अनिवार्य था क्योंकि वहाँ गुरूदेव समाधिस्थ थे। समाधि से व्युत्थित कर उन्हे किसी निरापद स्थान पर ले चलने के लिये सभी व्यग्र हो उठे। यह व्यग्रता देखकर शंकर कहीं से मिट्टी का एक कुंभ ले आये और उसे गुफा के द्वार पर रख दिया। फिर अन्य संन्यासियों को आश्वासन देते हुए बोलेः "आप चिन्तित न हों। गुरूदेव की समाधि भंग करने की कोई आवश्यकता नहीं। बाढ़ का जल इस कुंभ में प्रविष्ट होते ही प्रतिहत हो जायेगा, गुफा में प्रविष्ट नहीं हो सकेगा।"
सबको शंकर का यह कार्य बाल क्रीड़ा जैसा लगा किन्तु सभी ने विस्मित होकर देखा कि जल कुंभ में प्रवेश करते ही प्रतिहत एवं रूद्ध हो गया है। गुफा अब निरापद हो गई है। शंकर की यह अलौकिक शक्ति देखकर सभी अवाक् रह गये।
क्रमशः बाढ़ शांत हो गई। गोविन्दपादाचार्य भी समाधि से व्युत्थित हो गये। उन्होंने शिष्यों के मुख से शंकर के अमानवीय कार्य की बात सुनी तो प्रसन्न होकर उसके मस्तक पर हाथ रखकर कहाः
"वत्स ! तुम्हीं शंकर के अंश से उदभूत लोक-शंकर हो। गुरू गौड़पादचार्य के श्रीमुख से मैंने सुना था कि तुम आओगे और जिस प्रकार सहस्रधारा नर्मदा का स्रोत एक कुंभ में अवरूद्ध कर दिया है उसी प्रकार तुम व्यासकृत ब्रह्मसूत्र पर भाष्यरचना कर अद्वैत वेदान्त को आपात विरोधी सब धर्ममतों से उच्चतम आसन पर प्रतिष्ठित करने में सफल होंगे तथा अन्य धर्मों को सार्वभौम अद्वैत ब्रह्मज्ञान के अन्तर्भुक्त कर दोगे। ऐसा ही गुरूदेव भगवान गौड़पादाचार्य ने अपने गुरूदेव शुकदेव जी महाराज के श्रीमुख से सुना था। इन विशिष्ट कार्यो के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम समग्र वेदार्थ ब्रह्मसूत्र भाष्य में लिपिबद्ध करने में सफल होंगे।"
श्री गोविन्दपादाचार्य ने जान लिया कि शंकर की शिक्षा समाप्त हो गई है। उनका कार्य भी सम्पूर्ण हो गया है। एक दिन उन्होंने शंकर को अपने निकट बुलाकर जिज्ञासा कीः
"वत्स ! तुम्हारे मन में किसी प्रकार का कोई सन्देह है क्या ? क्या तुम भीतर किसी प्रकार अपूर्णता का अनुभव कर रहे हो ? अथवा तुम्हें अब क्या कोई जिज्ञासा है ?"
शंकर ने आनन्दित हो गुरूदेव को प्रणाम करके कहाः
"भगवन ! आपकी कृपा से अब मेरे लिए ज्ञातव्य अथवा प्राप्तव्य कुछ भी नहीं रहा। आपने मुझे पूर्णमनोरथ कर दिया है। अब आप अनुमति दें कि मैं समाहित चित्त होकर चिरनिर्वाण लाभ करूँ।"
कुछ देर मौर रहकर श्री गोविन्दपादाचार्य ने शान्त स्वर में कहाः
"वत्स ! वैदिक धर्म-संस्थापन के लिए देवाधिदेव शंकर के अंश से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हें अद्वैत ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने के लिए मैं गुरूदेव की आज्ञा से सहस्रों वर्षों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। अन्यथा ज्ञान प्राप्त करते ही देहत्याग कर मुक्तिलाभ कर लेता। अब मेरा कार्य समाप्त हो गया है। अब मैं समाधियोग से स्वस्वरूप में लीन हो जाऊँगा। तुम अब अविमुक्त क्षेत्र में जाओ। वहाँ तुम्हें भवानिपति शंकर के दर्शन प्राप्त होंगे। वे तुम्हें जिस प्रकार का आदेश देंगे उसी प्रकार तुम करना।"
शंकर ने श्रीगुरूदेव का आदेश शिरोधार्य किया। तदनन्तर एक शुभ दिन श्रीगोविन्दपादाचार्य ने सभी शिष्यों को आशीर्वाद प्रदान कर समाधि योग से देहत्याग कर दिया। शिष्यों ने यथाचार गुरूदेव की देह का नर्मदाजल में योगीजनोचित संस्कार किया।
गुरूदेव की आज्ञा के अनुसार शंकर पैदल चलते-चलते काशी आये। वहाँ काशी विश्वनाथ के दर्शन किये। भगवान वेदव्यास का स्मरण किया तो उन्होंने भी दर्शन दिये।
अपनी की हुई साधना, वेदान्त के अभ्यास और सदगुरू की कृपा से अपने शिवस्वरूप में जगे हुए शंकर 'भगवान श्रीमद् आद्य शंकराचार्य' हो गये।
बाद में वे मंडनमिश्र के घर शास्त्रार्थ करने गये। मंडनमिश्र बड़े विद्वान थे। उनके घर में पाले हुए तोते मैना भी वेद का पाठ करते थे वे ऐसे धुरन्धर पंडित थे। लेकिन शंकराचार्य सदगुरू प्रसाद से आत्मानुभव में परितृप्त थे। उन्होंने मंडनमिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त किया। वे ही मंडनमिश्र फिर शंकराचार्य के चार मुख्य शिष्यों में से एक हुए, सुरेश्वाचार्य। शंकराचार्य का दूसरा शिष्य तोटक तो अनपढ़ था। फिर भी शंकराचार्य की कृपा पचाने में सफल हो गया। तोटक, तोटक नहीं बचा, तोटकाचार्य हो गया।
देवगढ़ के दीवान साहब जनार्दन स्वामी से आत्मज्ञान पाकर एकनाथ, संत एकनाथ जी के रूप में प्रकट हुए। उनके आश्रम में एक विधवा माई का लड़का पूरणपोड़ी खाने के लिए रहा करता था। उसका नाम ही पड़ गया था पूरनपोड़ा। संत एकनाथ जी में उसकी अटूट श्रद्धा-भक्त थी। संत एकनाथजी जब संसार से प्रयाण करने को थे तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और कहाः "मैं एक ग्रन्थ लिख रहा हूँ जिसे पूरा नहीं कर सकूँगा। मेरे जाने के बाद पूरनपोड़ा से कहना, वह उस ग्रन्थ को पूरा कर देगा।"
व्यवस्थातंत्र के लोगों ने कहा किः "आपका बेटा हरि पण्डित पढ़ लिखकर शास्त्री हुआ है, वह ग्रंथ पूरा करेगा। यह अनपढ़ लड़का क्या पूरा करेगा ?"
एकनाथ जी ने कहाः "वह लड़का मुझे पिता मानता है, गुरू नहीं मानता। मेरे प्रति उसकी पिताबुद्धि है, गुरूबुद्धि नहीं है। मेरे प्रति उसमें श्रद्धा नहीं है और बिना श्रद्धा के ज्ञान हृदय में प्रविष्ट नहीं होता। पूरनपोड़ा पूरनपूड़ी खाने की आदतवाला तो है लेकिन साथ ही साथ उसके अन्दर श्रद्धा की सुहावनी धारा है। वही पूरनपोड़ा ग्रन्थ पूरा कर सकेगा। तुम चाहो तो पहले भले मेरे बेटे को ग्रंथ पूरा करने के लिए देना। लेकिन जब न कर पाये तो पूरनपोड़ा तो जरूर ही कर देगा।
हुआ भी ऐसा ही। वह शास्त्री बना हुआ लड़का ग्रंथ पूरा न कर सका लेकिन गुरू के वचनों में श्रद्धा रखकर यात्रा करने वाला वह अनपढ़ पूरनपोड़ा ने ग्रंथ पूरा कर दिया। यह है गुरूओं के कृपा-प्रसाद का चमत्कार।
ईशकृपा बिना गुरू नहीं गुरू बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं गावहिं वेद पुरान।।
उन गुरूओं का ज्ञान हम लोगों में अधिक से अधिक स्थिर हो, अधिक से अधिक फले फूले.......! गुरू की पूजा, गुरू का आदर कोई व्यक्ति की पूजा नहीं है, व्यक्ति का आदर नहीं है लेकिन गुरू की देह के अन्दर जो विदेही आत्मा है, परब्रह्म परमात्मा हैं उनका आदर है। किसी व्यक्ति की पूजा नही लेकिन व्यक्ति में जो लखा जाता है, उसमें जो अलख बैठा है उसका आदर है..... ज्ञान का आदर है..... ज्ञान का पूजन है..... ब्रह्मज्ञान का पूजन है।
गुरू तो यह इन्तजार करते हैं कि ऐसी घड़िया आ जाय कि शिष्य बदलकर गुरू के अनुभव से एक हो जाय। इसलिए जिन महापुरूषों ने शिष्यों के, साधकों के उद्धार के लिए संसार में ऐसे मार्ग प्रचलित किये हैं उन सबको पूरे-पूरे हृदय से कृतज्ञतापूर्वक, श्रद्धापूर्वक हम सब प्रणाम करते हैं। वे महापुरूष किसी रूप में हों...... दत्तात्रेय भगवान हों, शंकराचार्य भगवान हों, शुकदेव जी मुनि हों, जनक राजा हों, ज्ञानेश्वर महाराज हों, अखा भगत हों, संत तुकाराम हों, संत एकनाथ हों, जो संसार से पार हैं उन सब महापुरूषों को हम लोग बड़े प्यार से अपने हृदय में स्थापित करते हैं, उनके ज्ञान को अपने हृदय में धारण करते हैं। ॐ......ॐ.....ॐ......
हे आत्मारामी ब्रह्मवेत्ता गुरू ! हमारा हृदय खुला है। आप और आपका ज्ञान हमारे हृदय में प्रविष्ट हो। आपका हम आवाहन करते हैं, आपको बुलाते हैं, आपके ज्ञान को हम निमंत्रण देते हैं। हमारे हृदय में जिज्ञासा, ज्ञान और शान्ति का प्रागट्य हो। आपकी कृपा का सिञ्चन हो। हमारा हृदय उत्सक है। आप जैसे ब्रह्मवेत्ता के वचन हमारे हृदय में टिके।
गुरूपूर्णिमा के पावन पर्व पर हम यह पावन प्रार्थना करते हैं कि हे गुरूदेव ! वे दिन कब आयेंगे कि हमें यह संसार स्वप्न जैसा लगेगा ? वे दिन कब आयेंगे कि हर्ष के समय हमारे हृदय में हर्ष न होगा.... शोक के समय हमारे हृदय में शोक न होगा और हम सुख-दुःख दोनों के साक्षी हो जायेंगे। वे दिन कब आयेंगे कि ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों का अनुभव हमारा अनुभव हो जायेगा ?
हम भाग्यवान तो हैं..... सचमुच हम महाभाग्यवान हैं कि हम ब्रह्मविद्या सुन पाते हैं, ब्रह्मज्ञान सुन पाते हैं। ॐ...... ॐ......ॐ......
अब हम गुरूदेव की मानस पूजा कर लेंगे। मानसिक ढंग से, हृदय के भाव से उनकी प्रार्थना कर लेंगे। उनके प्रति हृदय में अहोभाव भरते-भरते पवित्र होते जायेंगे.... कृतज्ञता व्यक्त करते जायेंगे।
मन ही मन भावना करो कि हम उनके चरण धो रहे हैं। सप्ततीर्थों के जल से गुरूदेव के पदारविंद को नहला रहे हैं। बड़े आदर और कृतज्ञता के साथ गुरूदेव के श्रीचरणों में दृष्टि रखते हुए.... श्रीचरणों को प्यार करते हुए पैर पखार रहे हैं....। उनके पावन ललाट में शुद्ध चन्दन का तिलक कर रहे है.... अक्षत चढ़ा रहे हैं। अपने हाथों से बनायी हुई गुलाब के फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं.... हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उनको अपना अहंकार भेंट कर रहे हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और ग्यारहवें मन की चेष्टाएँ उन गुरूदेव के चरणों में समर्पित कर रहे हैं.....।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्।
करोमि यद् यद् संकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि।।
शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव से जो-जो करते हैं वह सब समर्पित करते हैं। हमारे जो कुछ भी कर्म हैं। हे गुरूदेव ! वह सब आपके चरणों में समर्पित हैं.....। हमारा कर्त्तापन का भाव, भोक्तापन का भाव आपके चरणों में समर्पित है।
राजा जनक को जब बोध हुआ तब उनका हृदय कृतज्ञता से भर गया। गद् गद् कण्ठ होकर गुरूदेव अष्टावक्र मुनि से कहाः "गुरूदेव ! आपने मुझे शाश्वत का बोध दिया है.... शाश्वत के अमृत से परितृप्त किया है। बदले में मैं आपको क्या दे सकता हूँ ? फिर भी मैं कृतघ्न न होऊँ इसलिए आपसे माफी माँगता हूँ कि आप नाराज न होना। मुझे फूल नहीं तो फूल की पंखुड़ी देने का मौका देना। हँसी मत उड़ाना, नाराज मत होना। आपने तो दिया है अखण्ड अमृत और मैं दे रहा हूँ मिटने वाली चीजें। फिर भी नाराज न होना। हे मेरे गुरूदेव ! आज तक जो मैंने सत्कृत्य किये हैं वे सब आपको समर्पित हों। आपकी दीर्घ आयु रहे। आपका सामर्थ्य और बढ़ता रहे। आपके श्रीचरणों में यह प्रार्थना करते हुए मैं, मेरा परिवार और मेरा राज्य आपको समर्पित हो रहे हैं। मैंने जो तालाब, बावड़ियाँ खुदवाई थी, गौशालाएँ खुलवाई थीं, प्याऊ लगवाये थे, अन्नक्षेत्र चालू करवाये थे, ये सब सत्कृत्य आपके पावन श्रीचरणों में अर्पित हैं। फिर भी हे नाथ ! मैं आपके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। सदगुरू के कर्जे से मुक्त होने की मुझे जरूरत भी नहीं दिखती है। गुरूदेव का कर्जा भले ही सिर पर रहे। संसार के कर्जदार होने की अपेक्षा गुरू के ज्ञान का कर्जा जिसके सिर पर है उसके सिर पर संसार का कर्जा, जन्म-मरण का कर्जा नहीं टिक सकता।"
"गुरूदेव ने कहाः "बेटा ! तू चिन्ता मत कर। मैंने ज्ञान दिया उसका कर्जा वसूल करने के लिए मैं तुझे किसी जन्म में नहीं डालूँगा। इस ज्ञान में तू निरन्तर प्रतिष्ठित रह और अगर कोई प्यासा आवे तो उसकी प्यास भी मिटाया कर। उसको भी आत्म-अमृत से तृप्त किया कर।"
क्या महापुरूषों की उदारता है ! क्या ब्रह्मवेत्ताओं की महानता है ! जीवन की बाजी लगाकर जो चीज पायी वह बीज प्रेम से सहज स्वाभाविक ढंग से हमारे दिलों में भर देते हैं। इससे लिए क्या-क्या नुस्खे आजमाते हैं ! क्या-क्या युक्तियाँ खोजते हैं ! न जाने क्या-क्या तरकीबें लड़ाते हैं ! ......ताकि यह जन्मों से सोया हुआ, युगों से कर्मों की जाल गूँथता हुआ जीव मुक्त हो जाय।
जिन मुक्त पुरूषों ने ऐसे मार्ग बनाये हैं, ब्रह्मज्ञान को प्रकट करने के नुस्खे पैदा किये हैं उन महापुरूषों में से एक थे अष्टावक्र। उनके चरणों में जनक अपना सर्वस्व सौंपकर भी कहता है किः "मैंने अभी कुछ नहीं दिया गुरूदेव ! क्योंकि आपने तो शाश्वत दिया और मैं जो भी दे रहा हूँ वह नश्वर है। यह देखकर आप नाराज न होना और मेरी हँसी न उड़ाना। प्रेम से स्वीकार करना नाथ !" ऐसा कहते हुए राजा जनक गुरूदेव के चरणों में मस्तक रख देते हैं। मानो कहते हैं कि अब यह मस्तक अन्यत्र कहीं नहीं झुकेगा। गुरूदेव की पूजा के बाद दूसरी कोई पूजा शेष नहीं बचती। देवी देवताओं की पूजा के बाद कोई पूजा रह जाय लेकिन ब्रह्मवेत्ताओं का ब्रह्मज्ञान जिसके जीवन में प्रतिष्ठित हो गया फिर उसके जीवन में किसकी पूजा बाकी रहे ? जिसने सदगुरू के ज्ञान को पचा लिया, सदगुरू की पूजा कर ली उसे संसार खेलमात्र प्रतीत होता है। राजा जनक ने संसार में खेल की नाँई व्यवहार करते हुए जीवन्मुक्त होकर परम पद में विश्रान्ति पायी।
ऐसे ही तुम भी उन महापुरूषों की, ब्रह्मवेत्ता गुरूओं की कृपा को हृदय में भरते हुए, ज्ञान को भरते हुए, आत्म-शान्ति को भरते हुए, उनके वचनों पर अडिगता से चलते हुए गुरूपूर्णिमा के इस पावन पर्व पर घड़ीभर अन्तर्मुख हो जाओ।
गुरूपूर्णिमा के पर्व पर परमात्मा स्वयं अपना अमृत बाँटते हैं। वर्ष भर के अन्य पर्व और उत्सव यथाविधि मनाने से जो पुण्य होता है उससे कई गुना ज्यादा पुण्य यह गुरूपूर्णिमा का पर्व दे जाता है।

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