पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, July 28, 2010



श्रीकृष्ण अवतार दर्शन पुस्तक से - Shri Krishna Avtaar Darshan pustak se

आत्म-साक्षात्कार करना बड़ा आसान है, सुगम है। राजा जनक को घोड़े के रकाब में पैर डालते-डालते हो गया था, खटवाँग को एक मुहूर्त में हो गया था, परीक्षित राजा को सात दिन में हो गया था। और भी कई नामी-अनामी महापुरूषों को आत्म-साक्षात्कार हुआ है। इतना सरल होने पर भी सबको आत्म-साक्षात्कार नहीं होता है। क्यों ?
भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
'यह अलौकि, अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरूष मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं, संसार से तर जाते हैं।'
(भगवद् गीताः 7.14)
यह अति अदभुत, त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है। इसका थाह नहीं पाया जा सकता है। यह माया लौकिक नहीं है, अलौकिक है। कोई आदमी अपनी लौकिक बुद्धि से, अपनी कल्पना के बल से, अपनी अक्ल-होशियारी का तुंबा बाँधकर इससे तरना चाहे तो नहीं तर सकता है। इस माया से कौन तर सकता है ? ज्यादा पढ़ा-लिखा या अनपढ़ ? निर्धन या धनवान ? देवी-देवता या भूत-प्रेत को रिझाने वाला या अवतार का सुमिरन करने वाला ? नहीं..... भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मुझ अन्तर्यामी की शरण रहेगा वह इस दुस्तर माया को आसानी से तर जायेगा।
अन्तर्यामी ईश्वर क्या है और ईश्वर की शरण जाना क्या है इस बात को जब हम ठीक से जान लेते हैं, तब शरणागति सफल होती है।
किसी तालाब में एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ने के लिए खड़ा था। वह दाँयी ओर, बाँयी ओर, पूरब की ओर, पश्चिम की ओर, चारों ओर जाल फेंकता था। उस जाल में छोटी-बड़ी, चतुर बुद्धु सब मछलियाँ फँस जाती थीं पर एक मछली ऐसी थी, जो मछुआरे के पैरों के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। मछुआरा वहाँ तो जाल फेंक नहीं सकता था। इसलिए वह उसके जाल में फँसने से बच जाती थी।
ऐसे ही त्रिगुणमयी माया के जाल में चतुर भी फँसे हैं, बुद्धू भी फँसे हैं, मूर्ख भी फँसे है और विद्वान भी फँसे हैं, भोगी भी फँसे हैं और त्यागी भी फँसे हैं। इतना ही नहीं, देव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, भूचर, जलचर, नभचर सभी इस माया के तीन गुणों में से किसी न किसी गुण में फँसे हैं। पर माया का जो आधार है, उस ईश्वर की शरण में रहने वाला माया के जाल में फँसने से बच जाता है।
कोई कहता हैः "मैं तो भगवान की शरण हूँ।"
तू भगवान की शरण में है तो 'तू' कौन है ? यह पहले बता।
'मैं तो गोविन्दभाई हूँ।'
नहीं..... तुम वह नहीं हो। यह तुमने सुन-सुनकर मान लिया है। पहले तुम अपने को जानो और 'भगवान क्या है' यह समझो। तब 'शरण जाना क्या है' इस बात का पता चलेगा। मैं भगवान की शरण हूँ। यह मान लेना अलग बात है, सचमुच में भगवान की शरण जाना अलग बात है। अगर मानी हुई शरण ईमानदारी की है तो सचमुच में शरण जाने का सौभाग्य प्राप्त हो जायगा।
माया में रहकर माया से तरना कठिन है। पर यदि ईश्वर की शरण में रहे, आत्मा में रहे तो माया तो अति तुच्छ है। जैसे स्वप्न में तो बहुत कुछ होता दिखाई देता है, पर स्वप्न से जाग जाते हैं, तब पता चलता है कि उसमें कोई सार नहीं था, कुछ सत्य नहीं था। सब मेरी ही करामात थी। ऐसे ही जब तक हम माया के गुण में फँसे होते हैं तब तक बहुत कुछ करने कराने में लगे रहते हैं, संसारसागर में गोते खाते रहते हैं, बार-बार जन्मते और मरते रहते है। पर जगतरूपी स्वप्न से जब जाग जाते हैं, तब उसका कोई प्रभाव नहीं बचता है। हम मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं।
माया में रहकर जो आदमी सुखी होना चाहता है वह दुःख ही पाता है। जैसे कोई हाथी कीचड़ में फँसा है। वह निकलना तो चाहता है, पर ज्यों-ज्यों निकलने का प्रयत्न करता है त्यों-त्यों अधिक फँसता जाता है।
'मैं शरीर हूँ और कुटुंब-परिवार, नात-जात सब मेरा है' ऐसी जो मान्यता है वह माया का खिलवाड़ है। इसमें आदमी फँस मरता है। अपने को जानता नहीं है, देह को ही 'मैं' मानता है। इसलिए माया के गुण उसे बाँध लेते हैं। ऐसा नहीं है कि आलसी, प्रमादी आदमी ही डूबता है, रजोगुणी और सत्त्वगुणी तो क्या स्वर्गलोक और ब्रह्मलोक तक जाने वाला आदमी भी माया के अन्तर्गत है, माया से पार नहीं हुआ है।
यह माया ऐसा अहं ले आती है कि आदमी जप-तप, सेवा-पूजा सत्कर्म नहीं करता है और अपने को पापी मानता है तो उसमें पापीपना आ जाता है। दान-पुण्य करता है तो दानीपना आ जाता है। साधन-भजन करता है, कुछ ज्ञान की बातें सुनता है और याद रखता है तो ज्ञानीपना आ जाता है, योगीपना आ जाता है। मन में हर्ष आता है तब खुश हो जाता है, अपने को भाग्यशाली मानता है। मन में शोक आता है तब अपने को अभागा मानता है। ऐहिक लाभ या हानि होती है तब अपने को लाभ या हानिवाला मानता है। कोई राजसी कर्म करके अपने को बड़ा मानता है। कोई तामसी कर्म करके अपने को बड़ा मानता है। कोई सात्त्विक कर्म करके अपने को बड़ा मानता है। यह सब हो रहा है गुणों में, अहं में। पर गुणों को जो सत्ता दे रहा है उसका पता नहीं है, अपने निर्गुण स्वभाव का बोध नहीं है। इसलिए सब अपने में आरोपित कर लेता है। यहीं गड़बड़ हो जाती है। यह गड़बड़ कई सदियों से, कई जन्मों से होती चली आ रही है। यह आदत पुरानी हो गयी है, इसलिये सच्ची भी लग रही है। हर कोई व्यक्ति अपनी मान्यताएँ बताये रखता है, चाहे अच्छी हों या बुरी और उसका अहंकार भी करता है।
अहंकार के साथ कर्त्तापना भी आ जाता है। अच्छे कर्म करने का भी अहंकार, बुरे कर्म करने का भी अहंकार और कुछ नहीं करने का भी अहंकार होता है। 'मैं तो कुछ नहीं करता। सब भगवान करवाता है।' इसमें 'मैं नम्र हूँ' इस बात का अहंकार तो रहता ही है।
जेल में कोई नया कैदी आया तो जेलर ने उसे अन्य कैदियों के साथ रख दिया। वहाँ किसी पुराने कैदी ने उसे आवाज लगाईः
"अरे दोस्त ! कितने महीने की सजा मिली है ?"
नया कैदी बोलाः "छः महीने की।"
तब पुराने कैदी ने कहाः "अरे यह तो सिक्खड़ है। भाई ! तू दरवाजे पर ही अपना बिस्तर लगा। यहाँ तो 20 सालवाले बैठे हैं। तूने ज्यादा से ज्यादा किसकी टांग तोड़ी होगी। हम तो तीन-तीन खून करके बैठे हैं। तूने डाका कितने का डाला था।
नया कैदीः "5000 रूपये का।"
पुराना कैदीः "अरे ! इतना छोटा काम को हमारे बच्चे ही कर लेते हैं। हमने तो दो लाख का डाका डाला और तीसरी बार जेल में आया हूँ। मैं कोई ऐसा वैसा नहीं हूँ... पुराना खिलाड़ी हूँ इस मामले में तो। जेल को तो अपना घर ही बना लिया है, हाँ !"
अशुद्ध और निंदित कर्म में जो कर्त्तापना और अहंकार है वह तो भटकाता ही है पर साधारण अहंकार भी गिराने वाला होता है। जब भी तुममें कर्त्तापना आ जाता है, तब सहजता, सरलता खो जाती है। तुम आरती कर रहे हो और कोई उसे देख रहा है, उससे प्रभावित हो रहा है, ऐसा तुम्हें लगता है तो तुम्हारी आरती लम्बी हो जाती है। कोई गौर से किसी की भजन सुन रहा है तो भजन सुनाने वाले के राग लम्बे होते जाते है। ढोलक बजाने वाले के ताल में जोश आ जाता है। तुम साईकिल चला रहे हो और कोई देख रहा है तो तुम्हारे पेड़ल मारने में रौनक आ जाती है। यह माया का गुण है जो तुम्हारे कर्त्तृत्व को, अहंकार को जगा देता है। अकेले में तुम कुछ और होते हो।
रमण महर्षि के पास कई लोग आते थे। कभी-कभी रमण महर्षि किसी व्यक्ति की ओर बार-बार अथवा एकटक देखते थे तो उसका अहंभाव जग जाता था। वह सोचने लगता कि 'मैं कुछ विशेष हूँ..... महर्षि मुझ पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।' अतः महर्षि को उस पर से दृष्टि हटा देनी पड़ती थी। जब उसकी ओर देखते ही नहीं तो उसको दुःख होता था कि महर्षि पहले, शुरू-शुरू में हम आये तब तो खूब ध्यान देते थे, अब आँख उठाकर देखते भी नहीं।
मनुष्य की यह बड़ी कमजोरी है। जिस पर कोई थोड़ा विशेष ध्यान देता है तो उसे होता है कि मैं कुछ विशेष हूँ और ध्यान नहीं देते हैं तो उसे लगता है कि मैं तो कुछ नहीं हूँ। 'मैं' तो बना ही रहता है। जब तक 'मैं' बना रहेगा तब तक कभी हानि कभी लाभ, कभी सुख कभी दुःख, कभी जीवन कभी मृत्यु सताता रहेगा।
इस गुणमयी माया के तीन गुण हैं- सत्व, रजस, तमस। इन तीन गुणों के विभिन्न प्रकार के मिश्रण से विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों का अनुभव होता है। कई लोग ईंट-चूना, लोहे लक्कड़ के मकान-दुकान, फैक्ट्री पाकर अपने को सुखी मानते हैं। कई लोग बाह्य विद्या, ऐहिक विद्या पढ़कर अपने को विद्वान मानते हैं। कई लोग बाह्य धन पाकर अपने को धनवान मान लेते हैं। इन चीजों के शिकंजे से छूटकर, इस भ्रांतिपूर्ण माया से निकलकर, कोई भगवान के रास्ते चलता है तो तुष्टि नाम की अवस्था आ जाती है। वह भी माया का रूप है। साधना-भजन करने लगे तो लोग भगत कहने लगे। ध्यान-साधना आदि किया, कुछ अनुभव होने लगे, भगवान का रूप दिखने लगा। कुछ होने वाली बात का पहले पता चलने लगा तो आदमी समझने लगता है, बस मेरा भजन हो गया। यह तुष्टि है। जैसे कोई चौथी-पाँचवीं कक्षा तक पढ़ ले और अपने को विद्वान मानने लग जाय, ऐसे ही ईश्वर के रास्ते चलते समय थोड़ी ऊँची अवस्था आ जाती है तब सूक्ष्म अहंकार आ जाता है वह तुष्टि है, माया का खेल है।
माया क्या है ? कहाँ रहती है ? माया माने धोखा। या मा सा माया। जो नहीं है फिर भी सच्ची दिखती है। वह अज्ञान के कारण टिकती है, जीव की कल्पना में रहती है और तुष्टि आदि के रूप में आती है। थोड़ा सा आभासज्ञान हुआ, थोड़ी-सी झलक मिली, थोड़ी सी वाह वाही मिली तो आदमी उसी में रूक जाता है।
माया रची तू आप ही है, आप ही तू फँस गया।
कैसा महा आश्चर्य है, तू भूल अपने को गया।।
संसार सागर डूबकर गोते पड़ा है खा रहा।
अज्ञान से भवसिन्धु में बहता चला है जा रहा।।
जिसे यहाँ पर छोड़कर जाना है, उसके पीछे दिन-रात एक करके लगे रहते हैं और जो सदा साथ में है, जिसे जाने बिना दुर्भाग्य मिटने वाला नहीं, उसके लिये समय नहीं है। यही माया है। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।
जो मेरी शरण आता है, वह माया से तर जाता है। श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं कहा है कि 'कृष्ण-कृष्ण' करते रहो तो तर जाओगे। उनका कहना है कि जो अन्तर्यामी कृष्णतत्त्व है उसकी शरण में रहो। जिसने अंतर्यामी कृष्णतत्त्व को 'मैं' रूप में जान लिया उसने सारी दुनिया के 'मैं' को जान लिया, वह माया से पार हो गया।
ईश्वर की देने की कला ऐसी है कि लेने वाले को पता ही नहीं चलता है कि यह किसी का दिया हुआ है। लेने वाला हर चीज को अपनी मान लेता है। जिस शरीर को वह 'मैं' मानता है, वह पानी की एक बूँद ही तो है, जो पिता के शरीर से पसार हुआ, माता के गर्भ में विकसित हुआ और प्रकृति के अन्न जल से उसका पोषण होकर बड़ा हुआ। अब शरीर ही 'मेरा' नहीं है तो मेरा बेटा, मेरी बेटी, मेरा परिवार, धन, मकान, दुकान, पढ़ाई-लिखाई, सत्ता, पद-प्रतिष्ठा 'मेरी' कैसे हो सकती है ? ईश्वर इस ढंग से देता है कि वह दाता दिखता ही नहीं है, लेकिन लेने वाला उस चीज को अपनी मान लेता है और माया के जाल में फँस जाता है। बड़े-बड़े तीसमारखाँ भी इस माया के बहाव में बह गये। जो साक्षात् श्रीकृष्ण के दीदार करते थे ऐसे नारदजी भी माया के जाल से नहीं बच पाये।
एक बार नारदजी अपनी मस्ती में मस्त होकर कीर्तन कर रहे थे। श्रीकृष्ण वहाँ पधारे। नारदजी की सेवा-भक्ति से श्रीकृष्ण संतुष्ट थे, प्रसन्न थे। उन्होंने नारदजी से कहाः
"देवर्षि ! तुम्हारे व्यवहार से मैं संतुष्ट हूँ। तुमको कुछ देना चाहता हूँ। तुम्हें क्या चाहिए ? जो भी इच्छा हो, वह माँग लो।"
नारदजीः "प्रभु ! मैं क्या माँगू ? मुझे आपके चरणों की भक्ति का वरदान दो।"
श्रीकृष्णः "वत्स ! तुम्हारी भक्ति से तो मैं संतुष्ट हूँ। तुम और कुछ माँग लो।"
नारदजीः "यदि आप मुझसे संतुष्ट हैं तो मुझे आपकी माया दिखलाइये।"
श्रीकृष्णः "मैं, जो सदा तुम्हारे साथ हूँ, अंतर्यामीरूप से सत्ता, स्फूर्ति, प्रेरणा देता हूँ उसे तुम देखो। माया देखने की जिद मत करो।"
नारदजीः "भगवन् ! आपको तो मैं देख रहा हूँ।"
श्रीकृष्णः "तुम मुझे नहीं देख रहे हो। इस शरीर को देख रहे हो। तुम मुझे देखो।"
नारदजीः "आपको अंतर्यामी के रूप में तो कभी न कभी देख लूँगा। पहले आप अपनी माया दिखाइये। आपकी माया को देख लूँगा तो माया से तर जाऊँगा।"
नारदजी माया में जी रहे हैं फिर भी माया को देखना चाहते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं- "माया को देख लोगे तो माया से तर जाओगे ऐसा नहीं है। जब मुझे देख लोगे, मुझ अन्तर्यामी कृष्ण को जान लोगे तब तर जाओगे।"
नारदजीः "प्रभु ! आपको तो देख ही रहा हूँ। कृपा करके अब आपकी माया दिखाइये।"
श्रीकृष्णः "नारद ! यह तुष्टि है। मेरे साकार रूप का दर्शन किया और आनंद आया यह ठीक है। पर अभी तुमने मेरे पूर्ण व्यापक रूप को नहीं जाना है, उसे पहले जान लो।"
भक्त तो बालक जैसे होते हैं। बालक माता-पिता से अपनी बात मनवाता है ऐसे ही भक्त की बात भगवान को माननी पड़ती है।
नारदजी ने कहाः "प्रभु "! मुझे तो आपकी माया ही दिखलाइय़े। आप तो कहते हैं 'मैं संतुष्ट हुआ हूँ... तू कुछ माँग ले।' जब माँगता हूँ तो बात टालते हैं, देना नहीं चाहते हैं।"
श्रीकृष्ण ने देखा कि इसको अभी ठोकर खाने की मर्जी है। उन्होंने कहाः "अभी मुझे प्यास लगी है। तुम जरा सरस्वती से पानी भर कर लाओ।"
नारदजी गये पानी लेने के लिए। 'भगवान के लिए पानी भरना है तो शुद्ध होकर भरूँ' यह सोचकर उन्होंने पानी में जरा गोता मारा तो नारद में से नारदी बन गये। स्त्री का शरीर, कपड़े-गहने, हाव-भाव सब आ गया। बड़ी सुंदर शर्मीली कन्या हो गई। वे भूल ही गये कि मैं नारद हूँ। किसी मल्लाह ने उसे अपनी ओर आकर्षित किया। उसी मल्लाह के साथ शादी हो गई। वह अब मल्लाहन बन गयी। अब वह मल्लाह के लिए रोटी बनाती, फिर भोजन देने जाती। दिन बीते, सप्ताह बीते, साल बीते। ऐसा करते-करते तेरह साल में नौ बच्चे हो गये। अब नारदी का परिवार बहुत बड़ा हो गया। इतने बड़े परिवार के पालन पोषण की चिन्ता में मल्लाह बीमार रहने लगा और जल्दी ही मर गया तो नारदी रोने लगीः "अरे ! मुझे अकेली छोड़कर कहाँ चले गये.... अब मेरा क्या होगा रे....!' उसे रोती हुई देखकर बच्चे भी रोने लगे।
इतने में श्रीकृष्ण वहाँ आये। उन्होंने कहाः "अरे ! तुम क्या करते हो ? मैंने तुम्हें पानी भरकर लाने को कहा था। अभी तक नहीं लाये ?"
नारदी होने की भ्रांति थी तो अपने कपड़े संभालते हुए गोता मारकर नारदजी बाहर निकले। देखते हैं तो न बच्चे हैं न मरा हुआ मल्लाह। नारदजी कुछ खोये-खोये से लगते थे। नारदजी ने श्रीकृष्ण से कहाः
"भगवन् ! यह लो पानी..... लेकिन मुझे कुछ हो गया।"
"क्या हुआ ?"
"मैं किसी मल्लाह की स्त्री बन गया था, मेरे कितने ही बच्चे हो गये थे। यह सब क्या था ?"
भगवानः "इसी का नाम माया है। तुम वही के वही थे पर तुम्हें यह सब महसूस हो रहा था। जो महसूस हुआ वह रहा नहीं, तुम तो रहे। तो तुम असलियत हो, बाकी जो दिख रहा था वह मिथ्या आभास था। यही तो मेरी माया है। इसे तरना आसान भी है और कठिन भी है। माया में रहकर माया से तरना चाहो तब कठिन है पर जब अपने-आप में ठहरते हो, तो माया से तरना आसान है।"
हमारे शरीर मन बुद्धि प्रकृति के हैं, हमारा व्यवहार प्रकृति में हो रहा है। प्रकृति में बदलाहट होती रहती है। प्रकृति में उत्पत्ति, स्थिति और लय का चक्र चलता रहता है। हमारे मन, बुद्धि आदि भी बदलते रहते हैं। बचपन के मन-बुद्धि जवानी में वैसे ही नहीं रहते हैं और जवानी के मन-बुद्धि बुढ़ापे में बदल जाते हैं। बुढ़ापे में स्मृति में भ्रम हो जाता है, लेकिन इन सब बदलाहट को देखने वाला जो अबदल, अविनाशी आत्मा है वह मैं हूँ, इस बात का पता चल जाय तो हम प्रकृति के प्रभाव से मुक्त हो जायेंगे। सुख-दुःख, मान-अपमान, हानि-लाभ कुछ भी हो, इनसे प्रभावित नहीं होते हैं तो हमारा भीतर का आनंद, भीतर का हौसला बना रहता है।
कभी-कभी तो लोग भगवान का भजन तो करते है साथ में सुविधाओं का भजन भी करते हैं। सुंदर वातावरण है, ठंडी-ठंडी हवा आ रही है, भगवान का भजन कर रहे हैं, बड़ा आनंद आ रहा है। पर यदि जरा किसी की कोहनी लग गई तो भजन-भगवान सब गायब ! ध्यान कर रहे हैं.... भगवान की मस्ती में हैं.....'अहा... हा... वाह..... प्रभु ! देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया.... आ..... हा.... आनंद ही आनंद है....' पर किसी ने जरा अपमान कर दिया कि आनंद गायब ! तो भगवान का भजन तो होता है, साथ में देह का भजन भी होता है, अपनी मान्यताओं का भजन भी साथ में चालू रहता है।
जो केवल अपनी मान्यताओं को पकड़कर बैठे हैं, उसमें ही उलझे हैं उनसे तो भगवान के साथ मान्यताओं को भी भजने वाला ठीक है। लेकिन जब तक मान्यताएँ मौजूद हैं तब तक वह संसारसागर से पूरा तर नहीं सकेगा। युद्ध करता हो, आमने-सामने बाणों की बौछारें हो रही हों, फिर भी अपने में कर्त्तृत्व न दिखे। चाहे क्रॉस पर या शूली पर चढ़ा दिया जाये पर उसे शूली शूली न दिखाई दे व चढ़ाने वाला दिखाई दे। तीनों लोकों का नाश कर दे या तीनों लोकों को जीवन दे दे फिर भी 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा भाव न हो। 'सब माया में हो रहा है, तीन गुणों से प्रकृति में हो रहा है। मैं इनसे परे हूँ।' इस बात को ठीक से जान लेने वाला माया से तर जाता है। वह भले फिर माया में रहता हुआ दिखे लेकिन उसकी वृत्ति कुछ अलौकिक हो जाती है।
करता हुआ भी नहीं करे सो प्राज्ञ जीवन्मुक्त है।
जो लोग सतत भगवान का स्मरण करते हैं वे माया से पार हो गये हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। भगवान का स्मरण ही नहीं, साक्षात् भगवान जिनके साथ हैं, ऐसे उद्धवजी को श्रीकृष्ण कह रहे हैं-
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि माया मनोमयम्।।
"जो मन से, वाणी से, आँखों से, कानों से देखने में, सुनने में और सोच विचार में आता है, वह सब त्रिगुणमयी माया का खिलवाड़ है, सब मनोमय है, नश्वर है। इसलिए हे उद्धव ! तू बद्रिकाश्रम जा और एकान्त में जाकर ज्ञान का विचार करे। तू चाहता है कि मैं साथ चलूँ पर साथ में कोई आया नहीं है, साथ में कोई जायेगा भी नहीं। कितने भी साथ में रहे फिर भी अलगाव रहेगा लेकिन सब शरीरों के बीच मैं बस रहा हूँ यह जान ले।
मयि सर्वामिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।
यह संपूर्ण जगत सूत्र में मणियों के सदृश मेरे में गूँथा हुआ है। यह मुझ चैतन्य को, कृष्णतत्त्व को तू अपने में जान लेगा और उसकी शरण रहेगा तो फिर कभी मुझसे अलगाव होगा ही नहीं। जब तक तू मुझ अन्तर्यामी की शरण नहीं जायेगा तब तक माया के गुण तुझे बाँधते रहेंगे, माया अपने बहाव में तुझे बहाती रहेगी।"
माया का मतलब है धोखा। कभी सात्विक धोखा, कभी राजस धोखा, कभी कभी तामस धोखा। जिन गुणों का प्रमाण ज्यादा होता है उस अनुसार उसका प्रभाव दिखाई देता है। जब सत्त्वगुण बढ़ता है तो आदमी स्वस्थ, फुर्तीला, प्रसन्न लगता है। वह अपने को ज्ञानी-ध्यानी मानता है। जब सत्त्वगुण कम होता है और रजोगुण बढ़ता है तो अति प्रवृत्तिशील होता है, अपने को चतुर, चालाक, धनी, दानी मानता है। जब सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ जाता है तब आदमी आलसी-प्रमादी बन जाता है, क्षुद्र अहंकार में उलझा रहता है।
आदमी जिस गुण के प्रभाव में जीता है, ऐसी ही इच्छाएँ, वासनाएँ, रूचियाँ पैदा हो जाती हैं।
जैसे, किसी गडरिये का 11 साल का लड़का हो और भैंसे चराता हो, तो वह 15 भैंसे तो आसानी से चरा लेता है पर उसे 15 अक्षर लिखने में कठिनाई मालूम पड़ती है। ऐसे ही हम सदियों से प्रकृति के गुणों के आधीन जीते आये हैं। अभी भी प्रकृति के गुणों के आधीन जीते हैं। शरीर को 'मैं' और संसार को सच्चा मानते हैं तो बुद्धि संसार में ही उलझी रहती है, अपनी ओर नहीं आती। हलकी बुद्धिवाले, हलके कर्म करने वाले लोग सत्संग में नहीं आ पाते हैं। उन्हें सत्संग अच्छा नहीं लगाता है।
तामसी लोग कहते हैं- "मैं कोई जैसा-तैसा आदमी नहीं हूँ। चार चिलम पी जाता हूँ और हमारे दादागुरू सबके सरदार थे। मैं ऐसे गुरू का चेला हूँ। दो चिलम पीता हूँ, फिर तीन घंटे भजन में बैठता हूँ।"
भजन में क्या बैठता है खाक ? वीर्यनाश हो जाता है, ज्ञानतन्तु शून्य हो जाते हैं, तो पड़ा रहता है तीन घंटे सुनसान होकर। यह भजन हुआ क्या ? यह तो तामसी माया है।
रजोगुणी आदमी प्रवृत्तिपरायण रहता है। कुछ न कुछ करते रहना, घूमना फिरना, मिलना-जुलना, सिनेमा-थियेटर जाना आदि उसे अच्छा लगता है।
एक लड़का अपने दोस्त से कह रहा हैः "तुझे मिले बिना चैन नहीं आता। जब तक तेरा दीदार नहीं होता है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। चाहे आँधी हो या तूफान, तुझे मिले बिना नहीं रह पाता हूँ।"
वह लड़का जब जाने लगा तब दोस्त ने उससे पूछाः
"जा रहे हो ? कल आओगे न ?"
लड़काः "आऊँगा......कोशिश करूँगा.....।"
अभी तो कहता था 'तेरे बिना चैन नहीं।' अब कहता है 'कोशिश करूँगा।' जीव को बेचारे को पता ही नही है कि वह करना क्या चाहता है और करता क्या है। यह भी माया का ही खेल है।
जो माया के खेल के पार होना चाहते है, उन्हें अपने अंतर्यामी की शरण जाना चाहिए, अपने असली स्वरूप को जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
वशिष्ठजी कहते हैं- "हे राम जी ! जो देह को 'मैं' मानते हैं उनके लिये तो संसारसागर पार करना बड़ा कठिन है। लेकिन जिनके पाप नष्ट हो गये है, जो विचार वान हैं, जिनका हृदय शुद्ध है, जो सत्त्वप्रधान हैं, जिनको सदगुरू की छाया मिली है, उनके लिये संसारसागर से तरना आसान है।"
सदगुरू की छाया तो मिले पर सदगुरू में अटूट श्रद्धा बनी रहे यह बात जरूरी है। ईश्वर में तो श्रद्धा हो सकती है लेकिन सदगुरू में श्रद्धा बनी रहे यह कठिन है। लाखों-लाखों शिष्यों में से कोई विरला ऐसा मिलेगा जिसको गुरूओं में कोई दोष न दिखे क्योंकि गुरू तो देहधारी होते हैं और हमारी तरह ही उठते-बैठते, खाते-पीते, लेते देते दिखते हैं। पर उनकी भीतर की स्थिति हम नहीं जान पाते है। वे देह में होते हुए भी देह से पार, तीनों गुणों से पार बैठे हुए होते हैं। हम देह में जीते हैं तो गुरू को भी देह बुद्धि के तराज में ही तोलते हैं। चाहे हजारों देवी देवताओं को मनाते रहो, रिझाते रहो, जब तक सदगुरू मे अटूट श्रद्धा नहीं हुई तब तक काम नहीं बनेगा। कोई कपड़े और गहने से अपने को सजाए रखने में मानता है, कोई पद-प्रतिष्ठा को मानता है, रूपये पैसे को मानता है। इनसे तो देवी देवता को मानने वाला ठीक है। लेकिन सारी मान्यताएँ जिस अंतःकरण से उत्पन्न होती हैं, उस अंतःकरण को सत्ता देने वाले आत्मा को जानना है। उसे जानना दुर्गम भी है और सुगम भी उतना ही है।
वशिष्ठ जी कहते है- "हे राम जी ! फूल पत्ती को तोड़ने में परिश्रम है, अपने आत्मा को जानने मे कोई परिश्रम नहीं है।"
......और कठिन भी उतना ही है कि आकाश चला जाय, पाताल चला जाय, स्वर्ग या नर्क चला जाय यह आसान है पर यहाँ, हृदय गुहा में केवल आधा इंच दूरी पर आना कठिन है।"
तुम बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, लंदन, अमेरिका जाओगे और लौटकर अपने घर आ जाओगे। लेकिन यहाँ आत्मा में आने में एक इंच भी दूरी नहीं और आज तक वहाँ पहुँचे नही हैं, क्योंकि कठिन है। सरल भी उतना ही है कि वहाँ पहुँचने में कोई झंझट नहीं है। न टिकट चाहिए न वीसा, न जाना है, न जाकर आना है। जहाँ है वहीं जरा भीतर गोता मार लिया कि पहुँच गये। एक बार ठीक से वहाँ पहुँच गये, फिर लौटने की बात ही नहीं। जहाँ जाओ वहाँ वही नजर आयेगा। संसार में इस देह से तो तुम अहमदाबाद मे होते हो तो बम्बई में नहीं होते हो और बंबई में होते हो तो अहमदाबाद में नहीं होते हो। जहाँ जाते हो वहाँ से अपने स्थान में लौटना पड़ता है लेकिन जब आत्मा में पहुँचोगे तो अपने को पूरे ब्रह्मांड में फैले हुए व्यापक स्वरूप में पाओगे।
यह ऊँचे में ऊँचा स्थान है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पद भी तुम्हारी व्यापकता में तुच्छ नजर आएँगे। यह रहस्य समझ में तो आता है, समझाया नहीं जाता है। इस ऊँचाई को पाना दुस्तर है, असंभव नहीं है। यह कठिन इसलिए लगता है कि हम गुणों में जी रहे हैं, गुणों से प्रभावित शरीरों में, ऐसे व्यक्तियों के बीच जीते हैं। सारा वक्त गुणों की बातों में, माया की बातों में गँवा देते हैं।
जो गुणों से पार हुए हों और हमें भी गुणों से पार ले जा सकें ऐसे ज्ञानी गुरूओं का, महापुरूषों का संग नही है। कइयों को संग मिल जाता है पर....'उसका लड़का ऐसा है... उसकी बहू वैसी है.....।' बस जहाँ देखो वहाँ, जब देखो तब यही आकृतियों की चर्चा होती है, मरने वाले हाड़-मांस के शरीरों की चर्चा होती है और बदलने वाली परिस्थितियों की चर्चा होती है। अबदल आत्मा का ज्ञान तो बड़े पुण्यों से सुनने को मिलता है। बहुमति गुणों में जीने वालों की है, उन्हें आत्मज्ञान की, तत्त्वज्ञान की बाते सुनाएँगे तो रूखापन आ जायगा पर गुणों की बात करेंगे तो रस आने लगेगा।
बड़ी उम्रवाले पति-पत्नी बम्बई की एक फाईव स्टार होटल में गये। हेयर डाई और मेक-अप आदि करने से कुछ बुढ़ापा भी छिप रहा था, वे कुछ जवान लग रहे थे। दोनों ने पहले आईस-क्रीम मँगवाया और खा लिया। फिर बैरे को आर्डर दियाः "एक डिनर प्लेट लाओ। बैरे ने डिनर प्लेट रख दी।
बैरा बड़े गौर से उन्हें देखता था। डिनर की प्लेट रखता जाय और टेढ़ी आँख से इन पति पत्नी की ओर देखता जाय। पति भोजन कर रहा है, पत्नी पंखा हाँक रही है। बैरे को लगा यह लैला मजनूँ की जोड़ी कहाँ से आई ! थोड़ी देर बाद उन्होंने दूसरी प्लेट मँगवाई। अब पत्नी खा रही है और पति पंखा हाँक रहा है। बैरे से रहा नहीं गया। आखिर उसने पूछ ही लियाः "आप दोनों में इतना स्नेह है तो आपने दोनों डिनर प्लेट साथ में क्यों नहीं मँगवाई ?"
उन्होंने कहाः "तेरी बात तो ठीक है, लेकिन हम दोनों के बीच दाँत की चौखट एक ही है। इसलिए बारी-बारी से अलग-अलग डिनर मँगवाये।"
ऐसी बातें तो रसीली लगेंगी क्योंकि हम गुणों में जीते हैं। निर्गुण तत्त्व में शुरू में तो रस नहीं आता है, पर सारे रस उसी से आते हैं।
जिनका हृदय शुद्ध है, जो ज्ञानवान हैं तथा जो इस त्रिगुणात्मक माया से तर चुके हैं ऐसे सदगुरूओं की बातों में हमारी रूचि पैदा नहीं होती है। उनके श्रीचरणों में श्रद्धा नहीं होती है। श्रद्धा हो भी जाय उनकी बातों में, रूचि भी पैदा हो जाये पर उसमें लगे रहने की दृढ़ता नहीं होती है तो जीव बेचारा माया में ही अटक जाता है। माया से पार नहीं हो पाता है।
जो देह को 'मैं' मानते हैं ऐसे लोग देह से संबंधित व्यवहार में और चीज वस्तु की उपलब्धियों में ही अपने को सुखी मानते हैं। देह से संबंधित व्यवहार में कुछ गड़बड़ हुई या चीज वस्तुएँ चली गई तो अपने को अभागा मानते हैं। ऐसे अभागों की तो भीड़ है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो देह से संबंधित व्यवहार भी संभालते हैं और भगवान का भजन भी करते हैं। ऐसे लोग मृत्यु के बाद ऊँचे लोक में जाते हैं लेकिन कोई-कोई ऐसे होते हैं जो देह को, देह से संबंधित व्यवहार और उपलब्धियों को तथा सभी लोकों को मायामात्र जानकर, अपने को अन्तर्यामी चैतन्य आत्मा, साक्षी, दृष्टा, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन जानकर उसी पद में स्थित रहते हैं। वे माया से पार होकर परम कार्य साध लेते हैं।

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