पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Saturday, February 20, 2010



तू गुलाब होकर महक पुस्तक से - Tu Gulaab ho kar Mehek pustak se

ज्ञानी किसी से प्यार करने के लिए बँधे हुए नहीं हैं और किसी को डाँटने में भी राजी नहीं हैं। हमारी जैसी योग्यता होती है, ऐसा उनका व्यवहार हमारे प्रति होता है।
लीलाशाह बापू के श्रीचरणों में बहुत लोग गये थे। एक लड़का भी गया था। वह मणिनगर में रहता था। शिवजी को जल चढ़ाने के पश्चात ही वह जल पीता। वह लड़का खूब निष्ठा से ध्यान-भजन करता और सेवा पूजा करता।
एक दिन कोई व्यक्ति रास्ते में बेहोश पड़ा हुआ था। शिवजी को जल चढ़ाने जाते समय उस बालक ने उसे देखा और अपनी पूजा-वूजा छोड़कर उस गरीब की सेवा में लग गया। बिहार का कोई युवक था। नौकरी की खोज में आया था। कालुपुर(अहमदाबाद) स्टेशन के प्लेटफार्म पर एक दो दिन रहा। कुलियों ने मारपीट कर भगा दिया। चलते-चलते मणिनगर में पुनीत आश्रम की ओर रोटी की आशा में जा रहा था। रोटी तो वहाँ नहीं मिलती थी इसलिए भूख के कारण चलते-चलते रास्ते में गिर गया और बेहोश हो गया।
उस लड़के का घर पुनीत आश्रम के पास ही था। सुबह के दस साढ़े दस बजे थे। वह लड़का घर से ध्यान-भजन से निपटकर मंदिर में शिवजी को जल चढ़ाने के लिए जल का लोटा और पूजा की सामग्री लेकर जा रहा था। उसने देखा कि रास्ते में कोई युवक पड़ा है। रास्ते में चलते-चलते लोग बोलते थेः 'शराब पी होगी, यह होगा, वह होगा... हमें क्या?
लड़के को दया आई। पुण्य कियें हुए हों तो प्रेरणा भी अच्छी मिलती है। शुभ कर्मों से शुभ प्रेरणा मिलती है। अपने पास की पूजा सामग्री एक ओर रखकर उसने उस व्यक्ति को हिलाया। बहुत मुश्किल से उसकी आँखें खुलीं। कोई उसे जूते सुंघाता, कोई कुछ करता, कोई कुछ बोलता था।
आँखें खोलते ही वह व्यक्ति धीरे से बोलाः
"पानी.... पानी...."
लड़के ने महादेव जी के लिये लाया हुआ जल का लोटा उसे पिला दिया। फिर दोड़कर घर जाकर अपने हिस्से का दूध लाकर उसे दिया।
युवक के जी में जी आया। उसने अपनी व्यथा बताते हुए कहाः
"बाबप्त जी! मैं बिहार से आया हूँ। मेरे बाप गुजर गये। काका दिन-रात टोकते रहते ते कि कमाओ नहीं तो खाओगे क्या? नौकरी धंधा मिलता नहीं है। भटकते-भटकते अहमदाबाद के स्टेशन पर कुली का काम करने का प्रयत्न किया। हमारी रोटी-रोजी छिन जायेगी ऐसा समझकर कुलियों ने खूब मारा। पैदल चलते-चलते मणिनगर स्टेशन की ओर आते-आते यहाँ तीन दिन की भूख और मार के कारण चक्कर आये और गिर गया।"
लड़के ने उसे खिलाया। अपना इकट्ठा किया हुआ जेबखर्च का पैसा दिया। उस युवक को जहाँ जाना था वहाँ भेजने की व्यवस्था की। इस लड़के के हृदय में आनंद की वृद्धि हुई। अंतर में आवाज आईः
"बेटा! अब मैं तुझे बहुत जल्दी मिलूँगा।"
लड़के ने प्रश्न कियाः "अन्दर कौन बोलता है?"
उत्तर आयाः "जिस शिव की तू पूजा करता है वह तेरा आत्मशिव। अब मैं तेरे हृदय में प्रकट होऊँगा। सेवा के अधिकारी की सेवा मुझ शिव की ही सेवा है।"
उस दिन उस अंतर्यामी ने अनोखी प्रेऱणा और प्रोत्साहन दिया। वह लड़का तो निकल पड़ा घर छोड़कर। ईश्वर-साक्षात्कार करने के लिए केदारनाथ, वृन्दावन होते हुए नैनिताल के अरण्य में पहुँचा।
केदारनाथ के दर्शन पाये,
लक्षाधिपति आशिष पाये।
इस आशीर्वाद को वापस कर ईश्वरप्राप्ति के लिए फिर पूजा की। उसके पास जो कुछ रुपये पैसे थे, उन्हें वृन्दावन में साधु-संतों एवं गरीबों में भण्डारा करके खर्च कर दिया था। थोड़े से पैसे लेकर नैनिताल के अरण्यों में पहुँचा। लोकलाड़ल, लाखों हृदयों को हरिरस पिलाते पूज्यपाद सदगुरु श्री लीलाशाह बापू की राह देखते हुए चालीस दिन बीत गये। गुरुवर श्री लीलाशाह को अब पूर्ण समर्पित शिष्य मिला... पूर्ण खजाना प्राप्त करने वाला पवित्रात्मा मिला। पूर्ण गुरु की पूर्ण शिष्य मिला।
जिस लड़के के विषय में यह कथा पढ़ रहे हैं, वह लड़का कौन होगा, जानते हो?
पूर्ण गुरु कृपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।
आसुमल से हो गये, साईँ आसाराम।।
अब तो समझ ही गये होंगे।
(उस लड़के के वेश में छुपे हुए थे पूर्व जन्म के योगी और वर्तमान में विश्वविख्यात हमारे पूज्यपाद सदगुरुदेव श्री आसाराम जी महाराज।)

सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लेना चाहिए। प्रातः खाली पेट मटके का बासी पानी पीना स्वास्थ्यप्रद है।
तुलसी के पत्ते सूर्योदय के पश्चात ही तोड़ें। दूध में तुलसी के पत्ते नहीं डालने चाहिए तथा दूध के साथ खाने भी नहीं चाहिए। तुलसी के पत्ते खाकर थोड़ा पानी पीना पियें।
जलनेति से पंद्रह सौ प्रकार के लाभ होते हैं। अपने मस्तिष्क में एक प्रकार का विजातिय द्रव्य उत्पन्न होता है। यदि वह द्रव्य वहीं अटक जाता है तो बचपन में ही बाल सफेद होने लगते हैं। इससे नजले की बीमारी भी होती है। यदि वह द्रव्य नाक की तरफ आता है तो सुगन्ध-दुर्गन्ध का पता नहीं चल पाता और जल्दी-जल्दी जुकाम हो जाता है। यदि वह द्रव्य कान की तरफ आता है तो कान बहरे होने लगते हैं और छोटे-मोटे बत्तीस रोग हो सकते हैं। यदि वह द्रव्य दाँत की तरफ आये तो दाँत छोटी उम्र में ही गिरने लगते हैं। यदि आँख की तरफ वह द्रव्य उतरे तो चश्मे लगने लगते हैं। जलनेति यानि नाक से पानी खींचकर मुँह से निकाल देने से वह द्रव्य निकल जाता है। गले के ऊपर के प्रायः सभी रोगों से मुक्ति मिल जाती है।
आईसक्रीम खाने के बाद चाय पीना दाँतों के लिए अत्याधिक हानिकारक होता है।
भोजन को पीना चाहिए तथा पानी को खाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि भोजन को इतना चबाओ कि वह पानी की तरह पतला हो जाये और पानी अथवा अन्य पेय पदार्थों को धीरे-धीरे पियो।
किसी भी प्रकार का पेय पदार्थ पीना हो तो दायां नथुना बन्द करके पियें, इससे वह अमृत जैसा हो जाता है। यदि दायाँ स्वर(नथुना) चालू हो और पानी आदि पियें तो जीवनशक्ति(ओज) पतली होने लगती है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, शरीर को तन्दरुस्त रखने के लिए यह प्रयोग करना चाहिए।
तुम चाहे कितनी भी मेहनत करो किन्तु जितना तुम्हारी नसों में ओज है, ब्रह्मचर्य की शक्ति है उतने ही तुम सफल होते हो। जो चाय-कॉफी आदि पीते हैं उनका ओज पतला होकर पेशाब द्वारा नष्ट होता जाता है। अतः ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए चाय-कॉफी जैसे व्यसनों से दूर रहना रहें।
पढ़ने के बाद थोड़ी देर शांत हो जाना चाहिए। जो पढ़ा है उसका मनन करो। शिक्षक स्कूल में जब पढ़ाते हों तब ध्यान से सुनो। उस वक्त मस्ती-मजाक नहीं करना चाहिए। विनोद-मस्ती कम से कम करो और समझने की कोशिश अधिक करो।
जो सूर्योदय के पूर्व नहीं उठता, उसके स्वभाव में तमस छा जाता है। जो सूर्योदय के पूर्व उठता है उसकी बुद्धिशक्ति बढ़ती है।
नींद में से उठकर तुरंत भगवान का ध्यान करो, आत्मस्नान करो। ध्यान में रुचि नहीं होती तो समझना चाहिए कि मन में दोष है। उन्हें निकालने के लिए क्या करना चाहिए?
मन को निर्दोष बनाने के लिए सुबह-शाम, माता-पिता को प्रणाम करना चाहिए, गुरुजनों को प्रणाम करना चाहिए एवं भगवान के नाम का जप करना चाहिए। भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवान! हे मेरे प्रभु! मेरी ध्यान में रुचि होने लगे, ऐसी कृपा कर दो।' किसी समय गंदे विचार निकल आयें तो समझना चाहिए कि अंदर छुपे हुए विचार निकल रहे हैं। अतः खुश होना चाहिए। 'विचार आया और गया। मेरे राम तो हृदय में ही हैं।' ऐसी भावना करनी चाहिए।
निंदा करना तो अच्छा नहीं है किन्तु निंदा सुनना भी उचित नहीं।
किसी भी व्यक्तित्व का पता उसके व्यवहार से ही चलता है। कई लोग व्यर्थ चेष्टा करते हैं। एक होती है सकाम चेष्टा, दूसरी होती है निष्काम चेष्टा और तीसरी होती है व्यर्थ चेष्टा। व्यर्थ चेष्टा नहीं करनी चाहिए। किसी के शरीर में कोई कमी हो तो उसका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए वरन् उसे मददरूप बनना चाहिए, यह निष्काम सेवा है।
किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। निंदा करने वाला व्यक्ति जिसकी निंदा करता है। उसका तो इतना अहित नहीं होता जितना वह अपना अहित करता है। जो दूसरों की सेवा करता है, दूसरों के अनुकूल होता है, वह दूसरों का जितना हित करता है उसकी अपेक्षा उसका खुद का हित ज्यादा होता है।
अपने से जो उम्र से बड़े हों, ज्ञान में बड़े हो, तप में बड़े हों, उनका आदर करना चाहिए। जिस मनुष्य के साथ बात करते हो वह मनुष्य कौन है यह जानकर बात करो तो आप व्यवहार-कुशल कहलाओगे।
किसी को पत्र लिखते हो तो यदि अपने से बड़े हों तो 'श्री' संबोधन करके लिखो। संबोधन करने से सुवाक्यों की रचना से शिष्टता बढ़ती है। किसी से बात करो तो संबोधन करके बात करो। जो तुकारे से बात करता है वह अशिष्ट कहलाता है। शिष्टतापूर्वक बात करने से अपनी इज्जत बढ़ती है।
जिसके जीवन में व्यवहार-कुशलता है, वह सभी क्षेत्रों में सफल होता है। जिसमें विनम्रता है, वही सब कुछ सीख सकता है। विनम्रता विद्या बढ़ाती है। जिसके जीवन में विनम्रता नहीं है, समझो उसके सब काम अधूरे रह गये और जो समझता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ वह वास्तव में कुछ नहीं जानता।
एक चित्रकार अपने गुरुदेव के सम्मुख एक सुन्दर चित्र बनाकर लाया। गुरु ने चित्र देखकर कहाः
"वाह वाह! सुन्दर है! अदभुत है!"
शिष्य बोलाः "गुरुदेव! इसमें कोई त्रुटि रह गयी हो तो कृपा करके बताइए। इसीलिए मैं आपके चरणों में आया हूँ।"
गुरुः "कोई त्रुटि नहीं है। मुझसे भी ज्यादा अच्छा बनाया है।"
वह शिष्य रोने लगा। उसे रोता देखकर गुरु ने पूछाः
"तुम क्यों रो रहे हो? मैं तो तुम्हारी प्रशंसा कर रहा हूँ।"
शिष्यः "गुरुदेव! मेरी घड़ाई करने वाले आप भी यदि मेरी प्रशंसा ही करेंगे तो मुझे मेरी गल्तियाँ कौन बतायेगा? मेरी प्रगति कैसे होगी?"
यह सुनकर गुरु अत्यंत प्रसन्न हो गये।
हमने जितना जाना, जितना सीखा है वह तो ठीक है। उससे ज्यादा जान सकें, सीख सकें, ऐसा हमारा प्रयास होना चाहिए।
रामकृष्ण परमहंस वृद्ध हो गये थे। किसी ने उनसे पूछाः "बाबा जी! आपने सब कुछ जान लिया है?"
रामकृष्ण परमहंसः "नहीं, मैं जब तक जीऊँगा, तब तक विद्यार्थी ही रहूँगा। मुझे अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।"
जिनके पास सीखने को मिले, उनसे विनम्रतापूर्वक सीखना चाहिए। जो कुछ सीखो, सावधानीपूर्वक सीखो। जीवन में विनोद जरूरी है किन्तु विनोद की अति न हो। जिस समय पढ़ते हों, कुछ सीखते हों, कुछ करते हों उस समय मस्ती नहीं, विनोद नहीं। वरन् जो कुछ पढ़ो, सीखो या करो, उसे उत्साह से, ध्यान से और सावधानी से करो।
पढ़ने से पूर्व थोड़े ध्यानस्थ हो जाओ। पढ़ने के बाद मौन हो जाओ। यह प्रगति की चाबी है।
माता-पिता से चिढ़ना नहीं चाहे। जिस माँ-बाप ने जन्म दिया है, उनकी बातों को समझना चाहिए। अपने लिए उनके मन में विशेष दया हो, विशेष प्रेम उत्पन्न हो, ऐसा व्यवहार करना चाहिए।
भूल जाओ भले सब कुछ,
माता-पिता को भूलना नहीं।
अनगिनत उपकार हैं उनके,
यह कभी बिसरना नहीं।।
माता-पिता को संतोष हो, उनका हृदय प्रसन्न हो, ऐसा हमारा व्यवहार होना चाहिए। अपने माता-पिता एवं गुरुजनों को संतुष्ट रखकर ही हम सच्ची प्रगति कर सकते हैं।

4 comments:

  1. "आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नए लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है। एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।"

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