पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Wednesday, February 29, 2012

सत्संग सुमन पुस्तक से - Satsang Suman pustak se

तू ही तू - Tu hi Tu

'जन्म-मृत्यु में ही तू ही तू.... मान तू..... अपमान भी तू.... तन्दरूस्ती तू... रोग भी तू..... सर्वत्र बस तू ही तू।' यदि मनुष्य को ऐसा ज्ञान हो जाये तो वह जीवनमुक्त हो गया। फिर कोई फिक्र नहीं। रोग, दुःख और अपमान में यदि आप अपने ही प्रियतम का हाथ देखेंगे तो ये उतना दुःखी नहीं बनाएँगे, जितना दुःख भेदबुद्धि से होता है। अभेदबुद्धि में दुःख और भय नहीं, उसमें तो ओज, तेज, आनंद, शांति होती है।
आज कल समाज में जितने भी तनाव, खिंचाव, खून आदि  हो रहे हैं उनके पीछे भेदबुद्धि का ही हाथ है क्योंकि क्रोध कभी स्वयं पर नहीं, दूसरों पर ही आता है। ऐसे ही मनुष्य कभी भी स्वयं पर मोहित नहीं होता, चाहे वह कितना भी सुन्दर या सुन्दरी हो। मोह दूसरे पर ही होता है। ऐसे ही काम, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि हमें स्वयं को देखकर नहीं, अपितु दूसरे को देखकर ही उपजते हैं।
यदि प्रत्येक अवस्था में अपने ही आत्मस्वरूप के दीदार करने की कला आ जाये तो सर्वत्र तू ही तू नजर आएगा।
तस्यैवाहम्-तवैवाहम्-सोहम्।
तस्यैवाहम् अर्थात् मैं उसी का हूँ। तवैवाहम् अर्थात् मैं तेरा हूँ। सोहम् अर्थात् वह मैं हूँ।
मँगनी होने के बाद लड़की कहती हैः "मैं उसकी हूँ।" शादी होने के बाद वह कहती हैः "मैं तेरी हूँ।" घर में रहकर कुछ दिन पुरानी हो जाय और पति का मित्र अगर पूछने आवे कि अमुक भाई कहाँ है ? मुझे उनसे जरूरी काम है तो वह कहती हैः "मुझसे ही कह दो। वे और मैं एक ही हो तो हैं। यह घर मेरा नहीं है क्या ?"
'तू ही तू' मानो मँगनी हुई। 'मेरा तू' अर्थात् शादी हो गई और मैं भी तू यानी काम पक्का हो गया..... मेरा घर है।
मँगनी हुई तो लड़की बोलती है 'उनका घर है... मेरे ससुरालवालों का घर है'। शादी हुई तो कहती है 'मेरे पति का घर है' और थोड़ी पुरानी हो गई तो कहती है 'हमारा घर लगता है।' फिर मायके का घर पराया और ससुरालवाला घर अपना लगता है। यह सब भाव बदलने के कारण ही होता है। बाहर का घर 'मेरा तेरा' तो ठीक है लेकिन आत्मा-परमात्मा 'मैं हूँ.... मेरा है...' ऐसी सोच समझ आ गई तो काम बन जाएगा।
भाव किसी साधन से नहीं, ज्ञान से बदलता है। बकरे के गले में फँदा हो फिर आप उसे घास खिलाओ, मिठाई खिलाओ, अगरबत्ती करो चाहे आरती करो फिर भी बँधन नहीं छूटेगा लेकिन फँदा कहाँ है व कैसे कटेगा यह जानकर कैंची ले आओ। बस, काम बन जाएगा। ऐसे ही मन रूपी बकरे के गले में जो फँदा पड़ा है उसे समझो.... विवेक, वैराग्य और सत्संग की कैंची से काटो तो जीव स्वतंत्र, स्व के तंत्र हो जाएगा।
भगवान कहते हैः
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।।
"जिन पुण्यकर्मा मनुष्यों के पाप नष्ट हो गये हैं, वे द्वन्द्व-मोह से रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।"
(गीताः 7.28)
द्वन्द्व क्या है ? सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि सब द्वन्द्व हैं। द्वन्द्व और मोह से मुक्त पुरूष 'यह अच्छा कि वह अच्छा.... संसार में ऊँचे रहें कि भक्ति करें....' ऐसे संकल्प-विकल्प से रहित हो जातें। संसार की नश्वरता को वे भलीभाँति जान चुके होते हैं। ऐसे पुण्यात्मा लोग दृढ़ता से भगवान का भजन करते हैं और परमात्मतत्त्व के ज्ञान एवं विज्ञान को प्राप्त करते हैं।
विद्याएँ तीन प्रकार की होती हैं- पहली ऐहिक विद्याः स्कूल-कॉलेजों में आज कल जो पेट भरने की विद्या मिलती है, वह ऐहिक विद्या कहलाती है।
दूसरी योगविद्याः इससे अलौकिक सामर्थ्य आती है।
तीसरी आत्मविद्याः ऐसा ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना, जिसका उल्लेख गीता में है।
ज्ञान अपनी आत्मा का प्राप्त करना चाहिए कि मैं कौन हूँ ? शरीर का नाम तो रख दिया कि अमुक भाई, अमुक साहब, डॉक्टर साहब, वकील साहब, न्यायाधीश, कलेक्टर, संत आदि लेकिन ये सारे नाम शरीर तक ही संबंध रखते हैं। शरीर खत्म हो गया तो सब छू हो जाएँगे लेकिन ये सारे नाम-रूप और मन-बुद्धि की सत्ता स्फूर्ति जहाँ से आती है वह आत्मा है। उस आत्मा का ज्ञान पाना चाहिए कि आत्मा कैसा है ? उसका स्वरूप क्या है ? हम कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? लाखों-करोड़ों जन्म हो गये। हम शरीर लेते गये.... छोड़ते गये। वास्तव में हम कौन हैं ? इसका वेदान्ती व तत्त्वदृष्टि से ज्ञान प्राप्त करके, श्रवण करके फिर उसके अनुभव में आ जाना इसे कहते हैं विज्ञान।
ऐहिक विज्ञान एक पृथक विषय है जिसमें वस्तुओं का ज्ञान होने पर उनका परिवर्तन, परिमार्जन कर उन्हें उपयोगी बनाना एवं उनमें संशोधन कर उनकी उपयोगिता बढ़ाना ऐहिक विज्ञान कहलाता है। लेकिन अपने स्वरूप के ज्ञान को अनुभव में लाना यह आत्मविज्ञान है। इलेक्ट्रीसीटी और इलेक्ट्रानिकरण का ज्ञान हुआ तो कितना लाभ होता है। विद्युत तत्त्व के ज्ञान के उपयोग से हम अनेकानेक उपकरण चलाते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु व आकाश तत्त्व का यदि हम ज्ञान पाते हैं तो अनेकानेक ऐहिक लाभ होते हैं लेकिन ये पंचमहाभूत जिस प्रकृति से संचलित होते हैं, उस प्रकृति को संचालित करनेवाले आत्मा-परमात्मा का यदि ज्ञान पावें तो कितना सारा लाभ हो सकता है !
चपरासी के घर की वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करके उसका उपयोग करने से इतनी खुशी मिलती है तो राष्ट्रपति के घर का खजाना मिल  जाए तो आपको कितना लाभ होगा ? .....और परमात्मा तो फिर राष्ट्रपतियों का भी राष्ट्रपति है। प्रवृत्ति परमात्मा के चरणों की दासी है। उस वासी के पंचभौतिक जगत के थोड़े से हिस्से का भी यदि ठीक से ज्ञान हो जाता है तो सांसारिक प्रसिद्धि मिल जाती है।
आईन्स्टीन ने रिसर्च किया तो कितना प्रसिद्ध हो गया !
जमनदादास बजाज के जामाता एवं गुजरात के भूतपूर्व राज्यपाल श्रीमन्ननारायण ने आईन्स्टीन से पूछाः "रिसर्च की दुनिया में तुम इतने आगे कैसे बढ़ गये ?"
आईन्स्टीन ने कहाः "चलो, मैं दिखाता हूँ।" वह हाथ पकड़कर उन्हें एक कमरे में ले गया। कमरा साफ-सुथरा था जिसमें ध्यान करने के लिए एक आसन बिछा था और एक मूर्ति थी। आईन्स्टीन ने कहाः "मैं भारतीय योगविद्या के अनुसार प्रतिदिन ध्यान करता हूँ। मेरी पत्नी के साथ पिछले चार वर्षों से मेरा शारीरिक संबंध नहीं है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से मेरा तीसरा केन्द्र विकसित हुआ जिसे रिसर्च की दुनिया में लगाने से यह सब कुछ प्राप्त हुआ। मेरे लिये तो यह आसान है लेकिन लोगों के लिए चमत्कार है।"
योगविद्या का आंशिक ज्ञान पाकर उस शक्ति को रिसर्च की दुनिया में खर्च कर आईन्स्टीन विश्वविख्यात हो गया। समर्थ रामदास ने योगविद्या सहित आत्मविद्या का ज्ञान पाया तो शिवाजी को इतना बल, शांति और समता मिली कि राजवैभव होते हुए भी शिवाजी राज्यदोष में नहीं आये।
मुगल शासकों से शिवाजी का युद्ध होता और मुगलों की हार होती तो उनके सरदार तोहफे में खूबसूरत राजकुमारियाँ, शाहजादियाँ ले आते। अगर दूसरा कोई राजा होता तो तोहफा पाकर बोल उठताः "वाह ! शाबास !!" और लाने वाले को इनाम देता लेकिन शिवाजी कहते थेः "नहीं। हमारी दुश्मनी तो राजा से थी, उसकी कन्या या पत्नी से नहीं।"
सरदार कहतेः "हम तो आपके लिए तोहफा लाये हैं। आप इसे अपनी भार्या बनाइये। यह बहुत सुन्दर है।"
तब शिवाजी कहतेः "यह सुन्दर है तो मुझे अगर दूसरे जन्म में आना पड़ा तो ऐसी सुन्दर माँ की कोख से जन्म लूँगा। यह तो मेरी बहन के समान है, माँ के समान है।"
भारतीय संस्कृति कितनी उदार है। कितनी महान है !! समर्थ रामदास की अनुभूति का प्रसाद शिवाजी के जीवन में उतरा है। इसे कहते हैं ज्ञान विज्ञान।
मनुष्य का आत्मा इतना सुखस्वरूप है कि उसे ऐहिक विकारों की तो तनिक सी भी आवश्यकता नहीं है लेकिन उन बेचारे ने अपने लेकिन उस बेचारे ने अपने आत्मसुख का अभी ज्ञान ही नहीं पाया तो विज्ञान कैसे पायेगा ? इसी कारण तो उसे तृप्ति नहीं होती है और कहता हैः "सिगरेट, तू सुख दे। डिस्को, तू सुख दे। परदेश के रूपयों की थप्पियाँ, तुम सुख दो...." लेकिन वे बेचारी खुद लाचार हैं सुख के लेने के लिए।
विदेशों में पति भी दुःखी है, पत्नी भी दुःखी है, उनके बच्चे भी दुःखी हैं इन चीजों से। मैंने विश्व के कई देशों की यात्रा की और देखा कि उन लोगों ने कितना भी एकत्रित कर लिया, कितना भी डिस्को कर लिया लेकिन उन लोगों में हमारे देश की तुलना में कई गुना अशांति है क्योंकि वहाँ ऐहिक ज्ञान-विज्ञान तो है लेकिन आत्मज्ञान का प्रसाद नहीं है। ऐहिक ज्ञान तो प्रकृति का अंश मात्र है, लेकिन प्रकृति को जहाँ से सत्ता आती है, उस स्व का, परमात्मतत्त्व का ज्ञान मिल जाए और उस ज्ञान में थोड़ी यात्रा करके गहरा उतर कर उस विज्ञान का अनुभव कर लिया जाए तो वह व्यक्ति सुखी, खुशहाल व तृप्त हो जाता है। फिर ऐसा आदमी अगर लाखों पुरूषों के बीच भी बोले तो उन सभी को अन्तरात्मा की तृप्ति की झलकें प्राप्त हो जाती हैं जो कि संसार से प्राप्त होना असंभव है।
गीता प्रेस, गोरखपुर के भक्तांक में एक घटना प्रकाशित हुई थी। काशी में एक महात्मा की कुटी की द्वार पर कोई बिल्ली मर गयी थी। महात्मा का स्वभाव दयालु था अतः उन्होंने बिल्ली को कपड़े में लपेटकर गंगाजी में प्रवाहित कर दिया तो बिल्ली का जीव देव की देह धारण करके प्रकट होकर बोलाः
"महात्मा जी ! आपने मेरा कल्याण कर दिया। मैं वही बिल्ली हूँ जो आपके द्वार पर मरी हुई पड़ी थी। आपकी दृष्टि पड़ने से तथा आपके करकमलों से अत्येष्टि होने से मुझे देव की देह मिली है, महाराज !"
यह भी कोई बड़ी बात नहीं है। जो ज्ञान-विज्ञान से तृप्त होता है ऐसा महापुरूष यदि किसी मुर्दे की जलती चिता के धुएँ को भी देख लेता है तो फिर मरने वाला महापापी व पातकी भी क्यों न रहा हो, उसे नरक की यात्रा नहीं करनी पड़ती, उसकी सदगति हो जाती है। यह कितना अदभुत विज्ञान है !
सितारों से आगे जहाँ कुछ और भी है।
इश्क के इम्तहाँ कुछ और भी है।।
बालक के सम्मुख चाकलेट, लालीपॉप व बिस्किट के साथ चाहे आप हीरे जवाहरात रख दो या सुन्दर कीमती रत्न, मोती रख दो, वह नन्हा-मुन्ना इन रत्नों को छूकर या देखकर नहीं रख देगा और चॉकलेट-बिस्किट में खुश हो जाएगा। ऐसे ही हमारी मति भी ऐहिक जगत में उलझी होकर तात्त्विक दृष्टि से नन्हें-मुन्नों जैसी ही है। हम भी संसार के खिलौनों में इतना उलझ जाते हैं कि आत्महीरा हमारे साथ, हमारे पास होते हुए भी हमें अनुभूति नहीं होती है। जब तक आत्मा-परमात्मा के विषय में हमने श्रवण-मनन नहीं किया और भीतर थोड़ा रिसर्च नहीं किया तब तक आत्महीन ऐसे ही पढ़ा रह जाता है।
तुलसीदास जी ने कहा हैः
घट में है सूझे नहीं, नालत ऐसे जिन्द।
तुलसी ऐसे जीव को, भयो मोतियाबिन्द।।
कबीर जी ने कहा हैः
भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।
खोजत खोजत जुग गये, पाव कोस घर आय।।
आदमी खोजता क्या है ? सुख। सुख भी कैसा ? ऐसा नहीं कि आपको दस मिनट के लिए सुख मिले फिर दुःख। दस घंटे, दस दिन या दस साल तक आपको सुख मिले फिर भी बाद में आप दुःख नहीं चाहते हैं। जीवन भर सुख और मरने के बाद आपको दुःख मिले ऐसा भी आप नहीं चाहते। कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं चाहता। सदा रहने वाला सुख प्रत्येक मनुष्य की माँग है लेकिन वह कितनी भी कोशिश करके देख ले, सदा रहने वाला सुख प्रकृति में है ही नहीं।
स्थाई सुख की माँग है तो ऐसा सुख भी कहीं न कहीं है। वह दूर नहीं, किसी आकाश-पाताल में नहीं, वह तो तुम्हारे वास्तविक शुद्ध स्वभाव में है, उसका तुम ज्ञान प्राप्त कर लोगे तो सदा रहने वाला सुख तुम्हारे घर का खजाना हो जाएगा।
जो सुख नित्य प्रकाश विभू नाम रूप आधार।
वह नित्य है, प्रकाशस्वरूप है, लेकिन सूर्य, विद्युत या नेत्रों के प्रकाशस्वरूप नहीं, उसे देखने के लिए तो मन का प्रकाश चाहिए।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः तमसः परमुच्यते।
वह अन्धकार से परे, माया से परे, ज्योतियों की ज्योति तुम्हारा आत्मा है। मन ठीक देखता है कि नहीं इसे भी देखने वाली मति है और मति ठीक है कि नहीं इसे देखने वाली ज्योति है आत्मज्योति। वह सदा ज्यों की त्यों रहती है। नेत्रों की ज्योति, सूर्य-चन्द्र की ज्योति, अग्नि और विद्युत की ज्योति तो कम ज्यादा हो जाती है लेकिन अंधकार में भी महाअंधकार को देखने वाली, दुःख और सुख दोनों ही को देखने वाली आत्मज्योति है। हम दुःख से जुड़ जाते हैं तो दुःखी होते हैं और सुख से जुड़ जाते हैं तो आसक्त होते हैं क्योंकि हमें अपना ज्ञान नहीं है। यदि हम अपने ज्ञान से जुड़ जावें तो न तो हमें आसक्ति होगी, न सुख होगा, न दुःख होगा। हम सदैव परमानंद में रह सकते हैं, ऐसा हमारा आत्मदेव है।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।
"जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो कूटस्थ है, कूट की तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में समबुद्धिवाला है, ऐसा योगी युक्त (योगरूढ़) कहा जाता है।"
(गीताः 6.8)
भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने राज्याभिषेकोपरांत अपने पिताश्री का श्राद्धकर्म किया जिसमें भुजाएँ पसारकर सबको आमंत्रित किया किः "देव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, देवाधिदेव और महादेव भी अगर इस दास राम की प्रार्थना सुन लें तो पधार सकते हैं।"
श्राद्ध हुआ। जिन्हे रूचि थे वे साधु-संत तो आये ही अपितु साधुओं के भी साधु भगवान सांब सदाशिव भी साधुओं का वेष धारणकरके अयोध्या आये। जिन्हें भुवनों को भंग करने का व्यसन है, ऐसे शिवजी अगर भोजन करने बैठें तो उनकी मौज है ! वे एक ग्रास से भी तृप्त हो सकते हैं और पूरी सृष्टि को स्वाहा कर दें फिर भी अतृप्त रह सकते हैं। उनके संकल्प का अपना अनुपम सामर्थ्य है। शिवजी को तो लीला करनी थी। जितना भी परोसा सब स्वाहा... थाली में आया कि स्वाहा।
भरत और शत्रुघ्न परोसते-परोसते थक गये तो लखन भैया से कहा गया। वे भी परोसने में अपना जोर आजमाते हुए थकने लगे। लखनजी भी देखते हैं कि ये बाबा गजब के हैं !
वे राम जी के पास गये और कहने लगेः "ये बाबा जी को जितना भी परोसते हैं सब खत्म कर जाते हैं। परोसकर वापस लेने जाते हैं तब तक वे थाली साफ कर देते हैं और पेट की आकृति वही की वही है। तनिक सा भी फर्क नहीं पड़ रहा है। ऊपर से आवाज देकर परोसने बुला रहे हैं। हजारों लोगों को अभी भोजन कराना बाकी है। हमने सोचा कि पहले बाबा लोगों को भोजन करवा दें बाद में अन्य लोगों को करवाएँगे। दूसरे सभी बाबा तो तृप्त हो गये मात्र दो-तीन बार परोसने मे ही लेकिन इन बाबा ने पेंदे की आवाज भी सुन मारी है फिर भी भूखे ही हैं। अब क्या करें प्रभु !"
प्रभु आये और देखा कि ये कोई पृथ्वीलोक का बाबा नहीं, यह तो शिवलोक का बाबा है। भगवान सांब सदाशिव स्वयं पधारे हैं। रामजी ने मन ही मन प्रणाम किया और आनंदित हुए। उन्होंने लक्ष्मण जी से कहा कि इन बाबा को तृप्त करना हमारे बस की बात नहीं है। रामजी ने माँ अन्नपूर्णा (पार्वती) का आवाहन कर माँ से ही परोसने का अनुरोध किया। माँ परोसने लगी तो बाबा बोलते हैं- "बस ! अब खेल खत्म हुआ।"
शिवजी ने यह खेल खत्म करते ही दूसरा खेल शुरू कर दिया। शत्रुघ्न को शिवजीरूपी बाबा कहते हैं- "तुम तो शत्रुओं का नाश करने वाले शत्रुघ्न हो।"
शत्रुघ्नः "हाँ, महाराज !"
शिवजीः "अच्छा, तो मुझे सहारा देकर उठा दो। बहुत खाया है तो उठा नहीं जा रहा है।" शत्रुघ्न ने अपना जोर लगाया लेकिन वे उठा न सके। आज तक शत्रुघ्न के मन में जो थोड़ी-बहुत हवा घुसी होगी वह बराबर हो गई। भगवान और तो सब कुछ सहन कर लेते हैं लेकिन अपने प्रिय भक्त का अहंकार नहीं सहते हैं। शिवजी ने अब भरत से कहाः
"भरत भैया ! तुम थोड़ी कोशिश करो।" भरत जी ने भी कोशिश करने के बाद क्षमा माँगी।
शिवजीः "लक्ष्मण लाला ! तुम उठा दो भाई ! बहुत खिला दिया है, इसलिए हम उठ नहीं पा रहे हैं।"
लक्ष्मणजी रामजी के साथ अधिक रहे थे। बड़ों के साथ अधिक रहने से दृष्टि भी बड़ी होती है। अपने से उच्च पुरूषों का संग करने से सहज में ही मति की ऊँचाई होती है और नीच व्यक्तियों की बातों में आने से बहुत नुकसान होते हैं।
राजा जनक ने ज्ञान-विज्ञान से तृप्त अष्टावक्र की शरण ली तो वे भी ज्ञान-विज्ञान से तृप्त हो गये। अश्व राजा, शिवाजी महाराज तथा अन्य वे सभी राजा-महाराजा, जिन्होंने ज्ञान-विज्ञान से तृप्त ब्रह्मवेत्ताओं की शरण ली, वे भी वहाँ पहुँच गये।
जैसा आपका संग होगा वैसा ही रंग आपको लगेगा। आपका मन उस सच्चिदानंद चैतन्य परमात्मा से स्फुरित होता है इसलिए बड़ा संवेदनशील रहता है। इसको जैसा रंग लगा दो, तुरन्त लग जाता है।
धरती में तमाम प्रकार के बीजों में रस भरने की शक्ति है। जैसा बीज होता है, ऐसा रस ले आता है धरती से। ऐसे ही हमारा साहित्य कैसा है ? हमारा संग कैसा है ? हमारा खानपान कैसा है ? हमारी इच्छा कैसी है ? हमारी आवश्यकता कैसी है ? जैसी-जैसी हमारी इच्छा, आवश्यकता, संग, खानपान आदि होते हैं, देर सवेर वैसी ही हमें प्राप्ति होती है।
नश्वर वस्तुओं की इच्छा-वासना बढ़ाने वाला संग करके नश्वर वस्तुओं की ही सत्यबुद्धि से इच्छा और प्रयत्न करते हैं तो हम नश्वर वस्तु और नश्वर शरीर प्राप्त करते जाते हैं... फिर मरते जाते हैं.... फिर जन्मते जाते हैं। यदि हम शाश्वत का ज्ञान सुनें, शाश्वत की इच्छा पैदा हो और मनन करके शाश्वत की गहराई में तनिक सी खोज करें तो शाश्वत आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार भी हो सकता है। वे लोग सचमुच में भाग्यशाली है जिनकी सत्संग में रूचि है और जिन्हें आत्मज्ञान और आत्मविज्ञान श्रवणार्थ मिलता है।
शिवजी ने लक्ष्मण की ओर देखा तो लक्ष्मण जी भगवान राम से प्रार्थना करते हैं- "प्रभु ! आपकी कृपा और आशीर्वाद होगा तो ही मैं सफल हो सकूँगा अन्यथा दोनों भ्राताओं जैसा मेरा हाल भी होगा।" श्रीराम का संकेत पाकर लक्ष्मणजी ने शिवजी से प्रार्थना की किः "नाथ ! उठेंगे तो आप अपनी ही सत्ता से, किन्तु यश इस दास को मिल रहा है।"
शिवजी प्रसन्न होकर उठ खड़े हुए।
राम जी गालों में मन्द-मन्द मुस्कराये।
मुस्कान तीन प्रकार की होती है। एक तो साधारण तौर पर हम लोग ठहाका मारकर खुलेआम हँसते हैं- स्वास्थ्य के लिये यह बहुत अच्छा है।
दूसरी होती है मधुर मुस्कान, जो गालों में ही मुस्करा दी जाती है।
तीसरी है यौगिक मुस्कान, जिसे ज्ञान-विज्ञान से तृप्त हुए आत्मयोगी पुरूष नेत्रों से मुस्कुरा देते हैं। नेत्रों की यह मुस्कान इतना अधिक महत्त्व रखती है कि हजारों नहीं, लाखों आदमी भी अगर बैठे हों और योगी नेत्रों से मुस्कुरा दिया तो लाखों आदमियों को ऐसी शीतलता, शांति और आनंद मिलेगा जो दुनिया की तमाम सुख-सुविधाओं और साधनों के उपभोग से भी उन्हें नहीं मिल सकता है। जिन्हें श्रीराम, श्रीकृष्ण अथवा महापुरूषों के नेत्रों की मुस्कान मिली होगी, उसका आनंद वे ही जानते होंगे।
निगाहों से वे निहाल हो जाते हैं
जो निगाहों में आ जाते हैं।।
ब्रह्मज्ञानी की दृष्टी अमृतवर्षी।
श्रीकृष्ण ने भी ऐसा ही अमृत बरसाया था अन्यथा बाँसुरी की धून से ग्वाल-गोपियाँ पागल हो जाएँ और गौ के बछड़े दूध पीना छोड़ दें यह संभव नहीं था। बंसी के साथ श्रीकृष्ण के नेत्रों की मुस्कान छलकती थी तभी तो ग्वाल-बाल बावरे हो जाते थे।
सिंधी जगत में एक भजन बना हैः
क्या जादू हणी मुंजे जीय में जोगी....
तिन सामीन खे त संभार्या पई।
करे याद उननजी रहमत खे
मां वर वर ओडां निहार्या पई।।
"मेरे जी में, मेरे हृदय में, मेरे चित्त में वह जोगी जादू लगाकर गया है। एक निगाह डाल दी बस ! अब मैं उन्हें बार-बार याद करती हूँ।"
रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र पर ऐसा ही जादू बरसाया था कि नरेन्द्र में से विवेकानंद हो गये जिन्होंने कहा थाः "मुझे बेचकर चने खा जायें ऐसे विद्वान मेरे कालेज से निकले। मेरी कक्षा के लड़के व मुझे पढ़ानेवाले लोग भी मुझसे आगे थे। काशी में मुझे बेचकर चने खा जाएँ ऐसे विद्वान अभी-भी मिलेंगे फिर भी खेतड़ी के महाराजा रथ में से घोड़ों को हटाकर स्वयं रथ खींचते थे और मुझे बिठाकर स्वागत करते थे, यह मेरे गुरूदेव की निगाह का प्रसाद नहीं तो और क्या है....?"
नूरानी नजर सां दिलबर दरवेशन मोखे निहाल करे छड्यो।
ज्ञान-विज्ञान से जो तृप्त हुए हैं उनकी नजरें नूरानी होती हैं। बाहर से तो वे साधारण दिखती हैं लेकिन उन आँखों से सदैव जो आध्यात्मिकता की ज्योति का प्रकाश बरसता है वह अदभुत होता है।
अमेरिका की डेलाबार प्रयोगशाला में पिछले दस वर्षों से निरंतर रिसर्च करते हुए वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि जो उन्नत एवं उत्तम पुरूष हैं उनकी दृष्टि पड़ते ही या उनके वातावरण में आते ही हमारे एक घन मिलीमीटर रक्त में 1500 श्वेतकण निर्मित होते हैं जो आरोग्यता और प्रसन्नता प्रदान करने में सहायक होते हैं।
विज्ञान तो अब बता रहा है लेकिन हमारे शास्त्र, संत और परम्परा तो सदियों से कहती आ रही है कि दूल्हा-दुल्हन जब आवें तो पहले उन्हें गुरू महाराज के पास शीश नवाने भेजना चाहिए। मरणोपरांत शवयात्रा ले जाते समय श्मशान के मार्ग में कोई मंदिर आता है तो उस मुर्दे को भी देवदर्शन करवाने का विधान है ताकि देवदर्शन के निमित्त किसी हृदय के ज्ञान-विज्ञान से तृप्त हुए महापुरूष की नजर पड़ जाए तो इस मुर्दे का भी कल्याण हो जाए। यह हमारी व्यवस्था थी।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।
'जिसका अंतःकरण ज्ञान विज्ञान से तृप्त है, जो कूट की तरह निर्विकार है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान है वह योगी युक्त अर्थात् भगवत्प्राप्त है ऐसा कहा जाता है।'
(भगवद् गीताः 6.8)
कूट अर्थात् लोहार की ऐरन, सुनार की ऐरन। सुनार की ऐरन पर गहने बनते जाते हैं, गहनों में चमक व डिजाइनें बनती हैं लेकिन ऐरन जैसी की तैसी ही रहती हैं। ऐसे ही तुम्हारी आत्मा पर मन-बुद्धि के विचार एवं सुख-दुःख की तरंगे आती हैं लेकिन तुम्हारे निजी स्वस्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता है, इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर यदि आप उसका अनुभव कर लेंगे तो परमात्मतत्त्व के ज्ञान-विज्ञान से आप भी तृप्त हो जाएँगे व दूसरों को भी तृप्त करने का सामर्थ्य पा लेंगे।

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