पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Monday, July 11, 2011


व्यासपूर्णिमा पुस्तक से - Vyaas-Purnima pustak se


साध्य को पाये बिना.......?   - Sadhya ko paaye bina......?

जो खिलाड़ी खेल को कठिन मानता है वह खिलाड़ी नहीं अनाड़ी है। जो कारीगर कहता है कि यह काम कठिन है, वह कारीगर नहीं अनाड़ी है। जो कहता है कि आत्मज्ञान पाना कठिन है, आत्म विश्रान्ति पाना कठिन है, आत्मा में आराम पाना कठिन है, परमात्मा का ध्यान करना कठिन है, प्रभु का अमृत पीना कठिन है, वह प्रभु के मार्ग में अनाड़ी है।
राजा खटवांग ने एक मुहूर्त में प्रभु का साक्षात्कार कर लिया। राजा जनक ने घोड़े की रकाब में पैर डालते डालते प्रभु का अनुभव कर लिया। शुकदेवजी महाराज ने इक्कीस दिन में आत्म-साक्षात्कार कर लिया। राजा परीक्षित को कथा-श्रवण करते-करते पाँच दिन हुए, शुकदेव जी की नूरानी निगाह पड़ी तो परीक्षित को तसल्ली मिल गयी। सातवें दिन पूर्णता प्राप्त हो गई।
अधिकारी जीव को पाँच, सात, दस दिन में, महीने दो महीने में, साल दो साल में, दस साल में भी, अरे पचास साल तो क्या पचास जिन्दगियाँ दाँव पर लगाने के बाद भी अनन्त ब्रह्मण्ड के नायक प्रभु का अनुभव होता है तो सौदा सस्ता है।
तू लगा रह। थक मत। लगा रह.... लगा रह.....। माप-तौल मत कर। पीछे कितना अन्तर काट कर आया इसकी चिन्ता मत कर। आगे कितना बाकी है यह देख ले। जितना चल लिया वह तेरा हो गया।

वशिष्ठजी कहते हैं- "हे रामजी ! सन्ध्या का समय हुआ है।"
सभा में सब परस्पर नमस्कार करके उठने लगते हैं तो रामजी कहते हैं- "भगवन् ! तुम्हारे शब्द कानों के भूषण हैं। सुनते-सुनते कान अघाते नहीं। हालाँकि ये बाते मैं पहले सुन चुका हूँ लेकिन फिर से आप कहते हैं...... बड़ी प्यारी लगती हैं ये बातें।"
तुलसीदास  जी कहते हैं-
श्रवण जाँ के समुद्र समाना।
हरिकथा सुनहिं नाना......।।
जिसके कान समुद्र के समान हैं…।
सब नदियाँ जाकर समुद्र में गिरती हैं लेकिन समुद्र इन्कार नहीं करता। ऐसे ही जो श्रोता हरिरस की चर्चा सुनते सुनते थकता नही, ऊबता नहीं तो समझ लो उसके श्रवण समुद्र के समान हैं।
यदि सत्संग नहीं सुनेगा तो कुसंग में पड़ेगा। यदि सत्कृत्य नहीं करेगा तो दुष्कृत्य करेगा। बन्दगी में, तपस्या में समय नहीं जायेगा तो ऐसे ही हाहा.... हूहू... में समय जायेगा। सत्संग में पाँच घण्टे बिताये तो ये पाँच घण्टे तपस्या में गिने जायेंगे। ज्ञान मिला वह मुनाफे में, भक्ति मिली वह मुनाफे में। नहीं तो पाँच घण्टे वैसे ही बीत जाते।
कबीरा दर्शन संत के साहिब आवे याद।
लेखे में वो ही घड़ी बाकी के दिन बाद।।
जो घड़ियाँ हरिचर्चा में, हरिध्यान में बीतीं वे सार्थक हैं

कोई भी कार्य उत्साह से किया जाय तो समय व शक्ति उसमें कम लगने पर भी वह कार्य बढ़िया सुन्दर बन जाता है। यदि कार्य करने में उत्साह नहीं है तो समय भी ज्यादा लगता है और वह इतना फलित भी नहीं होता है।
बड़े में बड़ा कार्य है भगवत्प्राप्ति। जिसने भगवत्प्राप्ति नहीं की उसने व्यर्थ जीवन गँवा दिया। भगवत्प्राप्ति करने में उत्साह चाहिए। उत्साह होने पर साधना में नियमितता आने लगती है। साधना में नियमितता आने के कारण साधना में रस पैदा होता है। वह रस साध्य तक पहुँचा देता है। अगर साधन-भजन में रस नहीं है, आहार व्यवहार में नियमितता नहीं है तो अच्छे से अच्छा साधक भी गिर जाता है।
सदगुरू का एक शिष्य उपदेश सुनकर एकान्त में गया। थोड़ा साधन-भजन किया। उसकी धारणाशक्ति सिद्ध हो गई। एकाग्रता हुई। एकाग्रता के बल से आत्म-साक्षात्कार करना चाहिए वह तो किया नहीं। एकाग्रता से छोटा-मोटा कुछ प्रभाव आया तो वह अपने को परमहंस मानने लग गया।
ब्रह्मवेत्ता महापुरूष ने जब तक अनुभव नहीं करवाया तब तक अपने मन से ही प्रमाणपत्र लेकर बैठ जाना यह आपको धोखा देना है। आखिरी मुहर तो ब्रह्मवेत्ता महापुरूषों की होती है।
जब तक साक्षात्कार नहीं होता है तब तक उच्च कोटि के महात्मा नहीं कहेंगे कि तुझको साक्षात्कार हो गया है। साक्षात्कार का मतलब है राग, द्वेष और अभिनिवेश निवृत्त हो जाना। ऐसा नहीं कि ललाट में बिन्दी देखी, प्रकाश देखा और चित्त में काम, क्रोध, लोभादि शत्रु मौजूद हैं, राग-द्वेष मौजूद हैं। जरा से प्रकाश की बिन्दी देखी और साक्षात्कार हो गया ? बिन्दी देखना यह दृश्य है। उसी को प्रभुदर्शन या साक्षात्कार मानने वाले लोग अपने आपको ठगते हैं।
पूरा संसार और मृत्यु का भय भी सत्य न दिखे। सारा संसार स्वप्न की नाँई भासे। स्वप्न में सुख देखा हो या दुःख देखा हो, जाग्रत में उसका कोई मूल्य नहीं। स्वप्न में तुमने लाखों रूपयों का दान किया तो जाग्रत में उस दान का अहंकार नहीं होता। स्वप्न में तुम्हारी जेब कट गई या करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो गयी तो आँख खुलने पर उसका शोक नहीं होता।
ऐसे ही यह संसार स्वप्न होता है। बोध हो जायगा तो हर्ष शोक के प्रसंग में सुख-दुःख भीतर से हिलायेंगे नहीं। जब तक ऐसा बोध हुआ नहीं, सौ प्रतिशत यात्रा नहीं हुई तब तक साधना में शिथिलत कर दे या अपने को ज्ञानी मान ले यह बड़ी भूल है। बिन्दी दृश्य होता है भैया ! रूप प्रत्याहार , दिखती है। योगमार्ग में यह बहुत छोटी बात है। आत्म-साक्षात्कार का इसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
कोई कहता है पृथ्वी बड़ी है, कोई कहता है आकाश बड़ा है, कोई कहता है स्त्री और पुरूष बड़े हैं लेकिन गोरखनाथ कहते हैं कि भूल बड़ी है जो आदमी को चौरासी लाख योनियों में भटकाती है। अपने स्वरूप के बारे में जो भूल है वह बड़े में बड़ी है। वही सब भ्रम दिखाती है।
साधना में थोड़ा अनुभव हो जाय उसी में तुष्ट हो जाना यह भी भूल है। इस तुष्टि के कारण वह साधक बेचारा उलझ गया। उलझ गया तो वह अपने को सिद्ध मानने लग गया। थोड़ी सेवा आदि की थी, थोड़ा भजन-वजन किया था। थोड़े पुण्य जमा हुए तो वह कपड़े लत्ते निकाल कर परमहंस का वेश बनाकर बैठ गया। लोग बापजी बापजी करने लगे। लोग खिलावें तो खावे, नहीं तो पड़ा रहे। कीर्ति फैल गई।
किसी राजा ने देखा कि ज्ञानी है, परमहंस है। बड़े आदर से महल में ले आये। सेवा की। पहले छोटी मोटी कौपीन पहनते थे फिर रेशमी चद्दरें पहनने लगे। कीर्ति में फँसे। राज्य का अन्न खाने लगे। राजा के यहाँ रहने लगे। राजसी अन्न.... बकरे कटते हैं उसमें से टैक्स आता है, गौ कटती है उसमें से टैक्स आता है, श्मशान का भी टैक्स आता है। सब राज्य का अन्न ! बुद्धि रजोगुणी हो गई, साधना नष्ट हो गई।
राजा को एक ही लड़की थी। और कोई संतति नहीं थी। राजा ने सेवा पूजा की। राजा के कुछ पुण्य रहे होंगे, उसको बेटा हुआ। राजा इस साधक को भगवान मानने लगा। राजा के निवास में रहते-रहते बुद्धि एकदम नीची हो गई। राजा की रानी भी सेवा करे, राजा की बेटी भी सेवा करे। उस युवती को देखते-देखते मन में विकार पैदा हुआ। एक दिन राजा को बुलाया और कहाः
"देख, यह लड़का तो पैदा हुआ मेरी कृपा से, लेकिन उसके ग्रह ऐसे हैं कि तुम्हारी लड़की जीवित रहेगी तो यह लड़का मर जायेगा।"
"बाप जी कोई उपाय बताओ।"
"उपाय यह है कि लड़की को सन्दूक में डालकर कृष्णार्पण कर दें तो लड़का जियेगा, नहीं तो मर जायेगा।"
राजा आ गया उसके षडयंत्र में। उसने लड़की को सन्दूक में डालने की बात वजीर से कहीं। वजीर कुछ सयाना था। सोचा कि राजमहल में रहते-रहते साधक की भावना चट हो गई है। तत्त्वज्ञान स्थित नहीं है। राजा उससे भरमा गया है।
वजीर ने सन्दूक मँगाया। लड़की को जाकर ठीक जगह रख दिया और जंगल से एक शेर पकड़वाकर सन्दूक में बन्द कर दिया। बजाते गाते सन्दूक को बाप  के कहे अनुसार नदी में प्रवाहित कर दिया। साधक ने यह देखा और मन ही मन कहाः अपना काम बन गया। जंगल जाने के बहाने वह भागा, सोलह सिंगार की हुई युवती को सन्दूक में सुलाया था उसे लेने के लिए। दौड़ते दौड़ते दो मील का चक्कर काटकर आगे जाकर देखा तो सन्दूक आ रहा है। अपना मनोरथ पूरा होगा। सन्दूक पकड़कर खोला तो निकला शेर। फिर क्या हुआ होगा यह कहने की आवश्यकता नहीं।
निगुरे का हाल भी निगुरा होता है। मनमुख कहाँ धोखा खा लेता है उसको पता नहीं चलता।
इस प्रकार की प्राचीन घटनाएँ हम लोगों को सावधान करती हैं कि जब तक पूरा तत्त्वज्ञान हजम नहीं हो जाय तब तक साधना से रूचि न हटायी जाय। इतनी कृपा करें। साधना में रूचि बनी रहेगी तो साधना में रस आयेगा। साधना का रस चालू रहेगा तो बाहर का रस आकर्षित नहीं करेगा। साधना का रस छोड़ दिया तो बाहर का रस फँसा देगा।
इसलिए साधना में नियमितता लानी चाहिए। यदि किसी कारणवश नियमितता न ला सकें तो भी साधना में प्रीति बनी रहनी चाहिए। साधना में प्रीति होगी तो साधना में रस आयेगा। साधना में रस आयेगा तो साध्य तक पहुँचा देगा।
हम जितना मूल्य संसार को देते हैं इतना मूल्य अगर ईश्वर को दें तो सचमुच फिर देर नहीं है, आप ईश्वर हैं ही। लेकिन जितना मूल्य ईश्वर को, परमात्मा को देना चाहिए उसका आधा मूल्य भी दे दें न, तो भी दुःख, कलह, परेशानी, जन्म-मृत्यु दूर हो जाय। हम मुक्त हो जायें। लेकिन हम परमात्मा के मूल्य को जानते नहीं। जगत का मूल्य, संसार का आकर्षण दिमाग में इतना भरा है कि दिन-रात उसी को सुनते हैं, उसी को देखते हैं, उसी की चर्चा करते हैं। हमारे हृदय में नाम रूप की सत्यता घुस गई है। नाम रूप की सत्यता ने लोगों के दिल की इतनी खाना खराबी कर दी है कि दिल में दिलबर छुपा है वह दिखता नहीं और जो मिथ्या है, स्वप्न जैसा है, बदलने वाला है, जिसमें कुछ सार नहीं फिर भी उससे दिल दिमाग को भर रखा है।
आपने डिप्टी कलेक्टर की कथा सुनी, शंकराचार्यजी की कथा सुनी, कालचक्र की बात सुनी। इस प्रकार आपको भी कोई बात लग जाय तो गाँठ बाँध लो। क्योंकि जीवन बड़ा मूल्यवान है। एक-एक दिन आयुष्य का नाश हो रहा है। एक-एक घण्टा आयुष्य का कम हो रहा है। एक एक मिनट आयुष्य की क्षीण हो रही है। उसमें सुख देखा तो स्वप्न हो गया, दुःख देखा तो भी स्वप्न हो गया, दुश्मन देखे तो भी स्वप्न हो गया।
ऐसे स्वप्न जैसे जीवन में लोग बेकार का तनाव खिंचाव करके अपनी शक्ति बरबाद कर देते हैं। जब दुःख आ जाय तो याद रखोः वह खबर देता है कि संसार का यही हाल है। जब सुख आ जाय तब समझना कि टिकने वाला नहीं। यह पक्का समझ लिया तो सुख जाते समय दुःख नहीं देगा। सूरज रोज ढलता है यह पता है इसलिए शाम को सूर्य ढल जाता है तो दुःख नहीं होत। लेकिन घर में लाइट का फ्यूज उड़ जाता है तो हाय हाय ! आकाश में सब फयूजों का बाप ऐसा सूर्य डूब जाता है तो हाय हाय नहीं होती। कभी सूरज ढला तो दुःख होता है कि हाय हाय ! अन्धेरा हो गया ? नहीं, यह तो रोज होता है अन्धेरा। घर का छोटा-सा दीया बुझ जाता है तो दुःख होता है। क्योंकि यह मेरा दीया है इसकी ममता है।
कभी पति का दीया बुझ जायेगा कभी पत्नी का दीया बुझ जायगा, कभी पुत्र का दीया बुझ जायगा। दीये का तेल देखकर अन्दाज लगा सकते हैं कि दीया कब तक जलता रहेगा लेकिन अपने जीवनरूपी दीये का कोई भरोसा नहीं। अतः अभी से सावधान !
गाफिल क्यूँ सोचत नहीं वृथा जीवन विलाय।
तेल घटा बाती बुझी अन्त बहुत पछताय।।
जैसे कोई खिलाड़ी समझता है कि खेल खेलना कठिन है वह खिलाड़ी नहीं अनाड़ी है। ऐसे ही जो साधक समझता है कि आत्मज्ञान पाना कठिन है, मुक्त होना कठिन है वह साधक नहीं अनाड़ी है। उसमें सत्त्वगुण नहीं आया, गुरू के ज्ञान में दृढ़ता नहीं आयी। परमात्मा में प्रीति नहीं हुई। तड़प नहीं आयी, छटपटाहट नहीं आयी इसीलिए उसको कठिन लगता है।
चातक मीन पतंग जब पिया बिन नहीं रह पाय।
साध्य को पाय बिना साधक क्यों रह जाय।।
मौत सिर पर खड़ी है और तू चद्दर ताने सोया है ! कब तक वह सोने देगी ? यह तो बहती सरिता है। जिसने पानी पी लिया सो पी लिया, नहा लिया सो नहा लिया। गंगा का बहता जल हमारा इन्तजार थोड़े ही करेगा ? समय हमारा इन्तजार थोड़े ही करेगा ? जितना पा लिया, जितना कर लिया, जितने संस्कार मजबूत हो गये परमात्मभाव के, उतनी ही तुम्हारी पूँजी है। और कोई पूँजी तुम्हारी नहीं है। ब्रह्मभाव के जो संस्कार हैं वे आपके हैं। आत्मविश्रान्ति के संस्कार आपके हैं, और कुछ आपका नहीं है।
जब भी मौका मिले, अकेले हो जाओ। शान्त हो जाओ। मौन का मजा लो। सत्संग की बात सुनकर मौन हो जाओ। आपस में ये बातें एक दूसरे से करो, संतों की प्रशंसा करो यह ठीक है लेकिन होकर सत्संग के विचारों में डूबे रहना, आत्म-चिन्तन में मस्त रहना अधिक अच्छा है। चित्त को शान्त करते जाओ, आत्म-शान्ति में खोते जाओ। सोना नहीं है, शान्त होना है। जितना जितना शान्ति का रस बढ़ेगा, जितनी जितनी निर्विचारिता बढ़ेगी उतने उतने आप महान् होते जाओगे। क्या पता दुबारा ऐसा शरीर मिले न मिले, दुबारा ऐसी बुद्धि मिले न मिले, दुबारा ऐसे प्यार से ऊपर उठाने वाले संतों की मुलाकात हो न हो !
देने वाला दिल खोल कर दे रहा है, तू अपना दामन क्यों सिकोड़ रहा है ? अपना दामन फैलाय जा.... फैलाय जा.... लेता जा। इन्कार क्यों करता है ?
साधन में रूचि रहे।
"रूचि नहीं रहती तो क्या करें ?"
साधन में नियमितता नहीं रख सकें तो क्या करें ?"
"भोजन में नियमितता है ?"
"नहीं।"
"नींद में नियमितता है ?"
"बाबा जी नहीं है।"
अच्छा ! भोजन करने में, नींद में नियमितता नहीं है फिर भी भोजन कर लेते हो। सो भी लेते हो। ऐसे ही अपना साधन भजन भी कर लो।
जो बहिर्मुख लोग हैं, जो रजो-तमोगुण के संस्कार के हैं उन लोगों का अन्न अनिवार्य हो तो ही खाओ, नहीं तो उससे बचो।
आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
जीवन में ऐसी कोई आपत्तियों की घड़ियाँ आ जाये तो तुरन्त स्मृति आ जाय ज्ञान की। मानो यकायक सामने मौत आ जाय तो भीतर से तुम्हारी स्मृति होनी चाहिए कि मेरी मौत कभी नहीं होती।
वास्तव में तुम्हारा ऐसा स्वभाव है। तुम वास्तव में ऐसे हो। तुम्हारी मौत कभी नहीं होती नहीं लेकिन गलती ने तुम्हें ऐसा पकड़ रखा है कि बस मर.... गये। पानी नहीं मिला तो मर गये, छाछ नहीं मिली तो मर गये। हजार हजार बार 'मर गये.... मर गये....' कहते कहते भी जी रहे हो न ? ऐसे ही ये हजार हजार शरीर मरें लेकिन तुम तो सबके जीवनदाता हो। तुमको यह पता नहीं। सूर्य में तुम्हारा प्रकाश है, तारों में तुम्हारी टिमटिमाहट है, चाँद में तुम्हारी चमक है, योगियों के हृदय में तुम्हारी धड़कन है। लेकिन तुम्हें अपनी महिमा का पता नहीं।
अपनी महिमा को जानो। अपनी महिमा को पाओ। वाडा, पंथ, संप्रदाय ठीक है, सब अपनी अपनी जगह पर है लेकिन आखिरी सत्य और सार यह नहीं है। जो ब्रह्मवेत्ता हों, ज्ञानवान हों, वेद वेदान्त के तत्त्व-मत से वाकिफ हों और जिनको अपना आत्मा हस्तामलकवत् भासता हो, ऐसे महापुरूषों के अनुभव के वचन पकड़कर साधना में डट जाओ। फिर जब व्यवहार करो तब व्यवहार को भी देखो कि आखिर यह सब कब तक ?
बचपन खेल हो गया, जवानी खेल हो गई। सब स्वप्न.....। आखिर पति कब तक ? पत्नी कब तक ? रूपये कब तक ? सत्ता कब तक? फूलों की शय्या कब तक और पलंग का आराम कब तक ?
जिसमें पुरूषार्थ करना है वह ईश्वर प्राप्ति की बात रख दी प्रारब्ध पर और जो प्रारब्ध के आधीन है उसमें पुरूषार्थ करने लग गये हैं। आँख की दवा पेट में और पेट की दवा आँख में।
एक बीमार आदमी था। उसकी आँखों में कुछ जलन थी। वह वैद्यराज के पास गया। वैद्यराज ने आँखों के लिए लोशन आदि दिया और पेट के लिए पुड़िया दी। उस बीमार ने क्या किया कि आँख की दवा पी गया और पेट की दवा आँख में डाल दी। आँख हो गई टमाटर जैसी लाल और पेट फूल कर हो गया तरबूज।
यह उस मरीज की कहानी नहीं है, हम लोगों की है। चारों तरफ देखो तो यही हाल है। ज्ञान की आँख भी ठीक से काम नहीं देती है और जीवन के सुख-दुःख को पचाने की जठराग्नि भी नष्ट हो गई है। यह हम लोगों की ही तो घटना है।
अब कृपानाथ ! कृपा करो अपने ऊपर। जो आँख में डालने की दवा है उसको आँख में डालो और जो खाने की दवा है उसको खाओ। जिस निगाह से संसार को देखना चाहिए, उस निगाह से संसार को देखो और जिस निगाह से, जिस भाव से प्रभु प्राप्ति करनी है उस निगाह को प्रभु के तरफ लगाओ। बस, तुम्हारा बेड़ा पार हो जायगा। तुम्हारा गुरूपूर्णिमा का पर्व पूर्ण रूपेण फल जायगा।

गुरूपूर्णिमा का उद्देश्य यह होता था कि सालभर में एक बार बिखरे हुए गुरूभाई एकत्र हों। कुछ नया मार्गदर्शन, कुछ नया उत्साह लेकर अपने लक्ष्य की ओर तीव्रता से गति करें। चतुर्मास का प्रारंभ करके आध्यात्मिक खजाना कमाने लगें। कुछ नियम, कुछ संकेत, गुरूओं की कुछ दुआ पायें और कुछ अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें। इसीलिए गुरूपूर्णिमा के पर्व का आयोजन किया गया है। कान में फूँक मारकर दक्षिणा ले लेने का यह पर्व नहीं है। लेकिन शोक, ताप, संताप से तप्त जीवों की तपन लेकर उनके हृदय में परमात्मा की पवित्र शीतलता भरकर जीव को जगाने का यह पर्व है।
शिष्य सोचता है कि जिन ऋषियों, महापुरूषों के द्वारा ऐसा मिलता है तो उनके लिए हम क्या करें ? हम कृतघ्न न बनें, गुणचोर न बनें इसलिए कुछ न कुछ सेवा करें। शिष्य कुछ सेवा खोजते हैं और गुरू सोचते हैं कि शिष्यों का तन, मन, धन, जीवन सार्थक हो जाये।
गंगा में नहाते हुए गुरूजी ने दूर खड़े शिष्य से पानी माँगा। शिष्य लोटा लाया, माँजा और गंगा जी में वहाँ आया और वहीं से भरकर गुरू जी को दिया। साथ में नहाते दूसरे संतों ने प्रश्न कियाः "गंगाजल ही पीना था तो आप गंगाजी में ही खड़े थे। उस शिष्य से क्यों परिश्रम कराया।" बाबाजी ने कहाः "इसी बहाने उसको सेवा मिली। कृतज्ञता भरा व्यवहार करके अपना अन्तःकरण पवित्र बनाने का मैंने उसे मौका दिया।"
जो सत्शिष्य हैं वे गुरूओं के आदेशों का, उद्देश्यों का पालन करते हैं और सेवा का मौका ढूँढते हैं। जो स्वार्थी हैं वे नश्वर संसार की सेवा करने में रूचि रखते हैं लेकिन शाश्वत परमात्मा की दिशा में ले जाने वाले रास्ते पर चलने की रूचि कम रहती है। इसका अर्थ यह है कि उन्होंने ईश्वर को कम मूल्य दिया है। परमात्मा को जो मूल्य देना चाहिए वह मूल्य उन्होंने जगत को दिया है। जगत का जो मूल्य है वह रख दिया परमात्मा के लिए। वे हैं भगत। जगत और परमात्मा, दोनों का मूल्य जिन्होंने जगत में लगा दिया वे हैं मूढ़। दोनों दृष्टियाँ जिन्होंने जगत में खर्च कर दी वे हैं पामर।
जो लोग संतों के पास आते हैं वे मूढ़ तो नहीं हैं, पामर तो नहीं हैं लेकिन संत जिन उच्च कोटि के जिज्ञासु की तलाश में हैं वे जल्दी मिलते नहीं। संत अपना खजाना बाँटते रहते हैं, वह खजाना खूटता नहीं लेकिन पूरे का पूरा खजाना लेनेवाला कोई मिल जाय ऐसी ताक में रहते हैं। ऐसा उत्कट जिज्ञासु, पूरा सत्शिष्य जल्दी मिलता नहीं। कवि काग अपनी व्यथा प्रगट करते हुए कहते हैं-

अमे नीसरणी बनीने दुनियामां ऊभा,
पण चड़नारा कोई न मळया रे जी।
अमे दादरो बनीने खीला खाधा,
पण तपस्यानां फल ना फळयां रे जी।
अंगड़ां कपाव्यां अमे, आग्युमां ओराणा,
अमे जन जननी थाळीए पीरसाणा,
पण जमनारा कोई ना मळया री जी।
माथड़ां कपाव्यां अमे, पाणीमां बफाणा
अमे अत्तर थईने, रूने पूमड़े नखाणा
पण सूंघनारा कोई ना मळया रे जी।
'काग' सरगापुरी छोड़ी अमे पतीतोने काजे
अमे हेमांळथी देहने पड़ता मेल्या
पण झीलनारा कोई न मळया रे जी।

ऐसा क्यों होता है ? संतों के पास सत्संग सुनने वाले तो हजारों की संख्या में लोग आते हैं लेकिन तत्त्वज्ञान की, आत्म-साक्षात्कार की, परमात्मा की आखिरी यात्रा सब लोग नहीं कर पाते। क्यों ? क्योंकि उनको ज्ञानवानों का संग कम है और संसार में उलझे हुए व्यक्तियों का संग ज्यादा है। खानपान की खबरदारी नहीं। जन्मजात ज्ञान के संस्कार नहीं। इसीलिए देरी होती है। अन्यथा परमात्मप्राप्ति में कुछ देरी नहीं है, कोई तकलीफ नहीं है। जो खिलाड़ी है उसके लिए खेल आसान है। जो अनाड़ी है उसके लिए खेल कठिन है।
जो कहते हैं कि परमात्मा-प्राप्ति कठिन है, आत्मज्ञान पाना कठिन है, अपने दिल में छुपे दिलबर का दीदार करना कठिन है, अपने आपकी मुलाकात करना कठिन हैं, आत्मदेव की मुलाकात करना कठिन है, वे खिलाड़ी नहीं अनाड़ी हैं। लेकिन जो कहते हैं आसान है, सरल है, परमात्मा तुमको मिल सकते हैं, ऐसे महापुरूषों का मिलना कठिन है।
ईश्वर मिलना कठिन नहीं है लेकिन हमारे हृदय में ईश्वर की सहजता, सरलता, आनन्द प्रगट करने वाले, हमारे दिल में ईश्वर प्राप्ति के लिए जिज्ञासा का तूफान भरने वाले, परमात्म-प्राप्ति कराने के लिए उत्सुक ऐसे महापुरूषों का मिलना कठिन है। जो कहते हैं कठिन नहीं है ऐसे संत महापुरूषों का मिलना कठिन है।
तुम लोग दूर से आये होगे..... थके होगे। अब प्रसाद पाओ, आराम करो....। लेकिन याद रखना, तुम कभी थकते नहीं। तुम्हारा शरीर थकता है। तुम थकान को भी देखते हो और थकान उतरने को भी देखते हो। मौत के समय भी अगर यह स्मृति आ जाय तो निहाल हो जाओगे। विद्यार्थी नहीं पढ़ता है, तो उसका कसूर है फिर भी मास्टर तो चाहता है कि वह पास हो जाय तो अच्छा है। किसी तुक्के से निकल जाये तो अच्छा है। ॐ......ॐ.......ॐ.....

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