पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, June 8, 2010



जो जागत है सो पावत है पुस्तक से - Jo jaagat hai so pavat hai pustak se

जब भगवान के सिवाय सब बेकार लगे तो समझो कि वह पहली भूमिका पर पहुँचा है । उसके लिए विघ्न-बाधाएँ साधन बन जाएँगी । विघ्न-बाधाएँ जीवन का संगीत है । विघ्न-बाधाएँ नहीं आयें तो संगीत छिड़ेगा नहीं ।
भौंरी कीड़े को उठाकर अपने बिल में रखती है । एक डंक मारती है, वह कीड़ा छटपटाता है । उसके शरीर से पसीने जैसा कुछ प्रवाह निकलता है । फिर भौंरी जब दूसरा डंक मारती है तब कीड़ा तेजी से छटपटाता है और वह पसीना कड़ा हो जाता है, जाला बन जाता है । जब तीसरा डंक मारती है तो कीड़ा खूब छटपटाता है, बहुत दुःखी होता है मगर उस डंक के कारण पसीने से जो जाला बना है उसी में से पंख फूट निकलते हैं और वह उड़ान भरता है ।
वैज्ञानिकों ने कीड़े में से मकड़ी बनने की इस प्रक्रिया को देखा । भौंरी के द्वारा तीसरे डंक सहने की तीव्र पीड़ा से उन कीड़ों को बचाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक बारीक कैंची बनाई और तीसरे डंक से कीड़ा छटपटाकर जाला काटे उसकी अपेक्षा उन्होंने कैंची से वह जाला काट दिया । कीड़े को राहत मिली, पीड़ा तो नहीं हुई, मगर फिर उसके पंख नहीं फूटे । उड़ान भरने की योग्यता उसमें नहीं आयी ।

ऐसे ही परमात्मा जब अपने साधक को अपनी दिव्य अनुभूति में उड़ान भरवाते हैं तब उसको चारों तरफ से विघ्न-बाधाएँ देते हैं ताकि उसका विचारबल, मनोबल, समझशक्ति एवं आत्मशक्ति बढ़ जाये । मीरा के लिए परमात्मा ने राणा को तैयार कर दिया । नरसिंह मेहता का भाई ही उनका विरोध करता था, साथ में पूरी नगरी जुड़ गयी । शबरी भीलनी हो, चाहे संत कबीर हो, चाहे एकनाथ जी हों या संत तुकाराम हों, कोई भी हो, लोग ऐसे भक्तों के लिए एक प्रकार का जाला बना लेते हैं । एकनाथ जी महाराज के खिलाफ हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर एक चांडाल चौकड़ी बनायी थी ।
जैसे कीड़े के लिए तीसरा डंक पंख फूट निकलने के लिए होता है ऐसे ही प्रकृति की ओर से यह सारा खिलवाड़ साधक के उत्थान के लिए होता है । जिन्हे सत्संग का सहारा नहीं है, पहली दूसरी भूमिका में दृढ़ता नहीं है वे हिल जाते हैं ।

बुद्ध के मन में एक बार आया कि यहाँ तो कोई पहचानता भी नहीं, खाने का भी ठिकाना नहीं है, लोग मुझ पर थूकते हैं, हालाँकि मैं उन्हें कुछ कहता भी नहीं । यह भी कोई ज़िन्दगी है ! चलो, वापस घर चलें । उस समय वे सिद्धार्थ थे । सत्संग का सहारा नहीं था । पहली भूमिका में दृढ़ता चाहिए । बचपन का वैराग्य हो तो ठीक है मगर बुढ़ापे में वैराग्य जगा है या फिर भी भोग भोगने के बाद, बच्चों को जन्म देने के बाद पहली भूमिका मिली हो तो जरा कमजोर है । बुद्ध के मन में आया कि चलो घर जायें । उन्हीं विचारों में खोये से बैठे थे । इतने में देखते हैं कि सामने पेड़ पर एक कीड़ा चड़ रहा है । हवा का झोंका आया और गिर पड़ा । फिर उसने चढ़ना शुरु किया । हवा का दूसरा झोंका आया और फिर गिर पड़ा । ऐसे वह कीड़ा सात बार गिरा और चढ़ा । आखिर वह आठवीं बार में चढ़ गया । सिद्धार्थ उसको ध्यान से देख रहे थे । उन्होंने सोचा कि यह कोई झूठी घटना नहीं है । यह तो संदेश है । एक साधारण कीड़ा अपने लक्ष्य पर पहुँच जाता है और मैं इन्सान होकर पीछे हट जाऊँ?
सिद्धार्थ की पहली भूमिका थी । अपने आप संस्कार जग गये । सिद्धार्थ ने निश्चय कर लियाः "कार्यं साधयामि व देहं पातयामि । या तो कार्य साध लूँगा या मर जाऊँगा । महल में भी एक दिन मर ही जाना है । साधना करते-करते भी मर जाऊँगा तो हर्ज नहीं । ऐसा सोचकर पक्की गाँठ बाँध ली और चल पड़े । सात साल के अन्दर ही उन्हें परम शांति मिल गयी ।

जब आदमी के शुभ विचार जगते हैं तब स्नान, दान, सेवा, स्मरण, सत्संग परहित उसे अच्छे लगते हैं । जिसे पहली भूमिका प्राप्त नहीं हुई उसे इन सब कार्यों के लिए फुर्सत ही नहीं मिलेगी । वहाँ से वह पलायन हो जायेगा । उसे वह सब अच्छा नहीं लगेगा । वाह-वाही पाने, यश कमाने को तो आगे आ जायेगा पर फिर खिसक जायेगा । ऐसे लोग फिर पशु, पक्षी, कीट की निम्न योनियों में जाते हैं ।
दूसरी भूमिका होती है शुभेच्छा । 'ऐसे दिन कब आयेंगे कि परमात्मा मिले, ऐसे दिन कब आयेंगे कि देह से देहातीत तत्त्व का साक्षात्कार हो जाये? अफसर, साहब, सेठ, साहूकार बन गये मगर आखिर क्या?' ऐसा विचार उसे आता रहता है ।

यह दूसरी भूमिका जिसे प्राप्त हो गई वह घर में भी है तो घर वाले उसे दबा नहीं सकेंगे । सत्संग और सत्कर्म में रूचि रहेगी । भोग-वासना फीकी पड़ जायेगी । मगर फिर रोकने वाले आ जायेंगे । उसे महसूस होगा कि ईश्वर के रास्ते में जाने में बहुत सारे फायदे हैं । विघ्न करने वाले साधक के आगे आखिर हार मान जायेंगे । ईश्वर का दर्शन तो इतने में नहीं होगा मगर जो संसार कोसता था वह अनुकूल होने लगेगा ।
उसके बाद तीसरी भूमिका आयेगी, उसमें सत्संग के वचन बड़े मीठे लगेंगे । उन्हीं वचनों का निदिध्यासन करेगा, ध्यान करेगा, श्वासोच्छोवास को देखेगा । 'मैं आत्मा हूँ, चैतन्य हूँ' ऐसा चिन्तन-ध्यान करेगा । गुरुदेव का ध्यान करेगा तो गुरुदेव दिखने लगेंगे । गुरुदेव से मानसिक बातचीत भी होगी, प्रसन्नता और आनंद आने लगेगा । संसार का आकर्षण बिल्कुल कम हो जायेगा । फिर भी कभी-कभी संसार लुभाकर गिरा देगा । फिर से उठ खड़ा होगा । फिर से गिरायेगा, फिर खड़ा होगा । परमात्मा का रस भी मिलता रहेगा और संसार का रस कभी-कभी खींचता रहेगा । ऐसा करते-करते चौथी भूमिका आ जाती है तब साक्षात्कार हो जाता है फिर संसार का आकर्षण नहीं रहता । जब स्वप्न में से उठे तो फिर स्वप्न की चीजों का आकर्षण खत्म हो गया । चाहे वे चीज़ें अच्छी थीं या बुरी थीं । चाहे दुःख मिला, चाहे सुख मिला, स्वप्न की चीज़ें साथ में लेकर कोई भी आदमी जग नहीं सकता । उन्हें स्वप्न में ही छोड़ देता है । ऐसे ही जगत की सत्यता साथ में लेकर साक्षात्कार नहीं होता । चौथी भूमिका में जगत का मिथ्यात्व दृढ़ हो जाता है । वृत्ति व्यापक हो जाती है । वह महापुरुष होते हुए भी अनेक ब्रह्माण्डों में फैल जाता है । उसको यह अनुभव होता है कि सूरज मुझमें है, चन्द्र मुझमें है, नक्षत्र मुझमें हैं । यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पद भी मुझमें हैं । ऐसा उन महापुरुषों का अनुभव होता है । उनको कहा जाता है ब्रह्मवेत्ता । वे ब्रह्मज्ञानी बन जाते हैं।

ब्रह्मज्ञानी को खोजे महेश्वर ।
ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर ।
ब्रह्मज्ञानी मुगत जुगत का दाता ।
ब्रह्मज्ञानी पूरण पुरुष विधाता ।
ब्रह्मज्ञानी का कथ्या न जाईं आधा आखर ।
नानक! ब्रह्मज्ञानी सबका ठाकुर ।

चौथी भूमिका में वह सबका ठाकुर हो जाता है । फिर उसके लिए कोई देवी-देवता पूजनीय नहीं रहते, नरक में ले जाने वाले यम नहीं रहते । उसके लिए सब अपने अंग हो जाते हैं । जैसे, रोमकूप आपको कभी चुभता? आपका पैर, अंगूठा, ऊँगली आपको चोट पहुँचाती है? नहीं । सब आप ही हो । ऐसे ही वह ब्रह्मज्ञानी व्यापक हो जाता है । ब्रह्म-साक्षात्कार करके ब्रह्ममय हो जाता है । फिर उसके लिए कोई रीति-रिवाज, कोई मजहब, कोई पंथ, कोई भगवान या देवी-देवता शेष नहीं रहते । वह जो बोलता है वह शास्त्र बन जाता है । संत तुकाराम ने जो अभंग गाये थे वे महाराष्ट्र यूनिवर्सिटी में, एम.ए. के विद्यार्थियों के पाठ्यपुस्तक में हैं । संत तुकाराम अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे मगर नरेन्द्र जैसे, केशवचन्द्र सेन जैसे, कई विद्वानों को मार्गदर्शन देने में समर्थ हो गये । व्यक्ति जब चौथी भूमिका में पहुँच जाता है तब उसकी वाणी वेदवाणी हो जाती है । संत तुकाराम कहते हैं- "अमी सांगतो वेद सांगते । हम बोलते हैं वह वेद बोलते हैं ।"
ब्रह्मज्ञान हो गया फिर ब्रह्मज्ञानी शास्त्र का आधार लेकर बोलें कि ऐसे ही बोलें, उनकी वाणी वेदवाणी हो जाती है । वे जिस धरती पर पैर रखते हैं वह धरती काशी हो जाती है । वे जिस जल को निहारते हैं वह जल उनके लिए गंगाजल हो जाता है । जिस वस्तु को छूते हैं वह वस्तु प्रसाद हो जाती है और जो अक्षर बोलते हैं वे अक्षर मंत्र हो जाते हैं । वे महापुरुष मात्र 'ढें...ढें... करो' ऐसा कह दें और करने वाला श्रद्धा से करता रहे, तो उसको अवश्य लाभ हो जाता है । हालांकि ढें... ढें... कोई मंत्र नहीं है मगर उन महापुरुष ने कहा है और जपने वाले को पक्का विश्वास है कि मुझे फायदा होगा तो उसे फायदा होकर ही रहता है ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्.....
जिनका वचन मंत्र हो जाता है उन्हें संसार की कौन-सी चीज़ की जरूरत पड़ेगी? उन्हें कौन-सी चीज़ अप्राप्य रहेगी? 'ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति....' ईश्वर के ध्यान से भी ज़्यादा महापुरुष के ध्यान से हमारा कल्याण होता है । जब तक ऐसे जीवित महापुरुष नहीं मिलते तब तक ईश्वर की मूर्ति का ध्यान किया जाता है । जब ऐसे महापुरुष मिल गये तो फिर उन्हीं का ध्यान करना चाहिए ।
मैंने पहले श्री कृष्ण का, माँ काली का, भगवान झूलेलाल का, भगवान शिव का ध्यान करते हुए न जाने कितने पापड़ बेले । थोड़ा-थोड़ा फायदा हुआ मगर सब देवी-देवता एक में दिखें ऐसे गुरुजी जब मिल गये तो मेरा परम प्राप्तव्य मुझे शीघ्र प्राप्त हो गया । मेरे डीसा के निवास में जहाँ मैं सात साल रहा था वहाँ, मेरी कुटिया में एक मात्र गुरुदेव का ही फोटो रहता था । अभी भी वही है और किसी देवी देवता का चित्र नहीं है । गुरु के ध्यान में सब ध्यानों का फल आ जाता है ।
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः ।
'विचारसागर' में यह बात आती है । वेदान्त का एक बड़ा ऊँचा ग्रन्थ है 'विचारसागर' । उसमें कहा है कि पहली, दूसरी या तीसरी भूमिका में जिसको भी ब्रह्मज्ञानी गुरु मिल जायें वह ब्रह्मज्ञानी गुरु का ध्यान करे, उनके वचन सुने । उसमें तो यहाँ तक कह दिया है किः
ईश ते अधिक गुरु में धारे भक्ति सुजान ।
बिव गुरुकृपा प्रवीनहुँ लहे न आतम ज्ञान ।।
ईश्वर से भी ज़्यादा गुरु में प्रेम होना चाहिए । फिर सवाल उठाया गया किः "ईश्वर में प्रेम करने से भी अधिक गुरु में प्रेम करना चाहिए । इससे क्या लाभ होगा?
उत्तर में कहाः 'ईश्वर में प्रेम करके सेवा पूजा करोगो तो हृदय शुद्ध होगा और जीवित महापुरुष में प्रीति करोगे, सेवा-पूजा, ध्यान करोगे तो हृदय तो शुद्ध होगा ही, वे तुम्हारे में कौन सी कमी है वह बताकर ताड़न करके वह गलती निकाल देंगे । मूर्ति तो गलती नहीं निकालेगी । मूर्ति से तुम्हारा भाव शुद्ध होगा परन्तु तुम्हारी क्रिया और ज्ञान की शुद्धि के लिए, अनुमति के लिए मूर्ति क्या करेगी?
भावशुद्धि के लिए ध्यान चिन्तन करते हैं । गुरु में जब प्रीति हो जायेगी तो गुरु हमें अपना मानेंगे, हम गुरु को अपना मानेंगे । गुरुजी हमारी गलती दिखायेंगे तो हम आसानी से स्वीकार करके गलती को निकालेंगे । गुरुजी के सामने नहीं पड़ेंगे, क्योंकि अपनत्व है । शिष्य विचार करेगा कि कौन गलती दिखा रहा है? मेरे गुरुदेव दिखा रहे हैं । तो फिर मेरे हित में ही है । फिर प्रतिशोध की भावना नहीं होगी । दूसरा कोई डाँट दे, अपमान करे तो प्रतिशोध की भावना उठेगी और गुरुजी डाँट दें तो खुशी होगी कि गुरुजी मुझे अपना समझते हैं, मेरी घड़ाई करते हैं, कितने दयालू हैं !
'विचारसागर' कहता हैः
ईश ते अधिक गुरु में धारे भक्ति सुजान ।
ईश्वर का भजन करने से केवल भाव शुद्ध होंगे, हृदय शुद्ध होगा गुरुदेव का भजन करने से क्रिया और ज्ञान शुद्ध होगा । गुरु का दैवी कार्य करना भी गुरुदेव का भजन है । गुरु का चिन्तन करना भी गुरु का भजन है । जो काम करने से गुरु प्रसन्न हों वह सारा काम भजन हो जाता है । हनुमानजी ने रावण की लंका जलाई फिर भी वह भजन हो गया । ताड़का वध भी राम जी का भजन हो गया । राक्षसों का संहार करना भी राम जी का विश्वामित्र के प्रति भजन हो गया । क्रिया तुम कैसी कर रहे हो, अच्छी या बुरी, यह नहीं परन्तु क्रिया करने के पीछे तुम्हारा भाव क्या है यह महत्व रखता है । जैसे माँ बच्चे को कभी कटु दवा पिलाती है कभी मिठाई खिलाती है मगर उसका भाव तो बच्चे की तन्दरुस्ती का है । ऐसे ही गुरु में हमारा भाव अगर शुद्ध है तो कभी कुछ करना पड़े तो कोई दोष नहीं लगता । कभी किसी से स्नेह से चलना हो या रोष करके चलना पड़े फिर भी भगवान के, गुरु के मार्ग पर चलते हैं, गुरुकार्य में लगे हैं तो वह भजन, पूजा, साधना हो जाती है । उस समय तुम्हारी क्रिया के पीछे जो भाव है उसका मूल्य है । जब तक ऐसा भाव नहीं जगा तब तक क्रिया मुख्य रहती है । भाव जग गया तब क्रिया गौण हो जाती है ।
पहली भूमिका में तुम्हें विषय, विकार, विलास बहुत कम अच्छे लगते हैं । चित्त में कुछ खोज बनी रहती है । दूसरी भूमिका में खोज करके तुम सत्संग में जाओगे । लोगों से तुम्हारा शुभ व्यवहार होने लगेगा । पहले संसार के ऐश-आराम में जो रुचि थी वह अब गायब हो जायेगी ।
तीसरी भूमिका में आनन्द आने लगेगा । ध्यान जमने लगेगा । समाधि का सुख प्रगाढ़ होने लगेगा । ब्रह्माकार वृत्ति की थोड़ी झलक आयेगी, मगर सत्संग, साधन, भजन छोड़ दोगे तो फिर नीचे आ जाओगे ।
चौथी भूमिका में सिद्ध बना हुआ साधक नीचे नहीं आता, गिरता नहीं । जैसे पदार्थ गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के पार चला गया तो फिर वापस नहीं गिरेगा । मगर गुरुत्वाकर्षण के अन्दर रहा, दूसरों की अपेक्षा वह ऊँचे तो है, फिर भी गिरने का डर है । वैसे ही जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक संसार के कीचड़ में गिरने का डर रहता है । आत्म-साक्षात्कार होने के बाद तो संसार के कीचड़ में होते हुए भी वह निर्लेप है । दही बिलोते हैं तब मक्खन निकलने से पहले झाग दिखती है । अगर गर्मी ज़्यादा है तो थोड़ा ठंडा पानी डालना पड़ता है, ठंड ज्यादा हो तो थोड़ा गर्म पानी मिलाना पड़ता है और मक्खन निकाल लेना पड़ता है । अगर छोड़ देंगे तो फिर मक्खन हाथ नहीं आयेगा । जब मक्खन निकालकर उसका पिण्ड बना लिया फिर उसे छाछ में रखो तो कोई चिन्ता नहीं । पहले एक बार उसे दही में से निकाल लेना पड़ता है । ऐसे ही संसार से न्यारे होकर एक बार अपने हृदय में परमात्म-साक्षात्कार का अनुभव कर लेना पड़ता है । फिर भले संसार में रहो, कोई बात नहीं । छाछ में मक्खन तैरता रहता है । पहले तो छाछ में मक्खन दिखता भी नहीं था, अब डूबता ही नहीं है । दोनों अवस्था में मक्खन है उसी छाछ में ही |
रहत माया में फिरत उदासी ।
कहत कबीर मैं उसकी दासी ।।
ब्रह्मज्ञानी सदा निर्लेपा ।
जैसे जल में कमल अलेपा ।।
फिर उन ब्रह्मज्ञानी के शरीर से दिव्य परमाणु निकलते हैं । उनकी निगाहों से दिव्य रश्मियाँ निकलती हैं । विचारों से भी दिव्यता निःसृत होती है । मंद और म्लान जगत को वह कांति और तेजस्विता प्रदान करता है । जैसे चन्द्रमा स्वाभाविक शीतल है, औषधि को पुष्ट करता है वैसे ही वे पुरुष स्वाभाविक ही समाज की आध्यात्मिकता पुष्ट करते हैं । ऐसे पुरुष बार-बार आते हैं इसीलिए संस्कृति टिकी रहती है । धर्म टिका हुआ है । नहीं तो धर्म के नाम पर दुकानदारी बढ़ जाती है । मजहब के नाम पर मारकाट बढ़ जाती है ।
चौथी भूमिका प्राप्त हो जाये तो साक्षात्कार तो हो गया, परन्तु उसके बाद एकान्त में रहते हैं, अपनी मस्ती में ही रहते हैं तो पाँचवीं भूमिका हो जाती है । वह जीवन्मुक्त पुरुष हो जाता है । चौथी भूमिका वाले को कभी-कभी विक्षेप होगा मगर अपने आप सँभल जायेगा । पाँचवी भूमिका वाला विक्षेप करने वाले लाखों लोगों के बीच रहे फिर भी विक्षेप उसके अंदर तक नहीं पहुँचता, कभी हलका सा, बहते पानी में लकीर जैसा लगे परन्तु तुरन्त ज्ञान के बल से विक्षेप हट जायेगा ।
छठी भूमिका में तो जगत का पता भी नहीं चलेगा । कोई मुँह में कौर दे-देकर खिलावे ऐसी अवस्था हो जाती है । ज्यों-ज्यों ज्ञान में जायेगा त्यों-त्यों लोगों की, जगत की पहचान भूलता जायेगा । पाँचवी भूमिका में भी थोड़ी-थोड़ी विस्मृति होती है मगर छठी में विस्मृति गहरी हो जाती है । दस दिन पहले कुछ कहा और आज वह सब भूल गया ।
एक तो होती है विस्मृति और तत्त्वज्ञान की इतनी गहराई होती है कि बोलते समय भी उस वचन की सत्यता नहीं है, देखते समय भी सामने वाले व्यक्ति के नामरूप की सत्यता नहीं है । उसके ज्ञान में नाम, रूप का हिस्सा कम हो जाता है । उस अवस्था में और भी ज्यादा डूबा रहे तो उसे जब कोई कहे कि 'यह रोटी है, मुँह खोलो' तब वह मुँह खोलेगा । ऐसी अवस्था भी आ जाती है ।
घाटवाले बाबा का कहना हैः "भगवान श्रीकृष्ण की चौथी भूमिका थी । इसलिए उनको बाहर का ज्ञान भी था, ब्रह्मज्ञान भी था । रामजी की चौथी भूमिका थी । जड़भरत की पाँचवीं भूमिका थी । जब कभी, जहाँ कहीं चल दिया । पता भी नहीं चलता था ऋषभदेव की छठी भूमिका हो गई । वे वन में गये । वन में आग लगी है तो भी पता नहीं । कौन बताये? उसी आग में वे चले गये । शरीर शांत हो गया । वे स्वयं ब्रह्म में मिल गये ।
पहली भूमिकाः यूँ मान लो कि दूर से दरिया की ठंडी हवाएँ आती प्रतीत हो रही है ।
दूसरी भूमिकाः आप दरिया के किनारे पहुँचे हैं ।
तीसरी भूमिकाः आपके पैरों को दरिया का पानी छू रहा है ।
चौथी भूमिकाः आप कमर तक दरिया में पहुँच गये हैं । अब गर्म हवा आप पर प्रभाव नहीं डालेगी । शरीर को भी पानी छू रहा है आसपास भी ठंडी लहरें उभर रही हैं ।
पाँचवीं भूमिकाः छाती तक, गले तक आप दरिया में आ गये ।
छठी भूमिकाः जल आपकी आँखों को छू रहा है, बाहर का जगत दिखता नहीं । पलकों तक पानी आ गया । कोशिश करने पर बाहर का जगत दिखता है ।
सातवीं भूमिकाः आप पूरे दरिया में डूब गये ।
ऐसी अवस्था में कभी-कभी हजारों, लाखों वर्षों में कोई महापुरुष की होती है । कई वर्षों के बाद चौथी भूमिका वाले ब्रह्मज्ञानी पुरुष पैदा होते हैं । करोड़ों में से कोई ऐसा चौथी भूमिका तक पहुँचा हुआ वीर मिलता है । कोई उन्हें महावीर कह देते हैं । कोई उन्हें भगवान कह देते हैं । कोई उन्हें ब्रह्म कहते हैं, कोई अवतारी कहते हैं, कोई तारणहार कहते हैं । उनका कभी कबीर नाम पड़ा, कभी रमण नाम पड़ा, कभी रामतीर्थ नाम पड़ा, मगर जो भगवान कृष्ण हैं वही कबीर हैं । जो शंकराचार्य हैं, राजा जनक, भगवान बुद्ध हैं वही कबीर हैं । ज्ञान में सबकी एकता होती है । चौथी भूमिका में आत्म-साक्षात्कार हो जाता है । फिर उसके विशेष आनंद में पाँचवीं-छठी भूमिका में रहें या लोकसंपर्क में अपना समय लगायें उनकी मौज है । जो चार-साढ़े चार भूमिका में रहते हैं, उनके द्वारा लोककल्याण के काम बहुत ज्यादा होते हैं । इसलिए वे लोग प्रसिद्ध होते हैं और जो पाँचवीं, छठी भूमिका में चले जाते हैं वे प्रसिद्ध नहीं होते । मुक्ति सबकी एक जैसी होती है । चौथी भूमिका के बाद ही पाँचवी में पहुँच सकता है । ऐसा नहीं कि कोई आलसी है, बुद्धु है और उसे हम समझ लें कि छठी भूमिका में है । दिखने में तो पागल और छठी भूमिका वाला दोनों एक जैसे लगेंगे । मगर पागल और इसमें फर्क है । पागल के हृदय में एकदम अँधेरा है इसलिए पागल है और ज्ञानी अंदर से पूरी ऊँचाई प्राप्त है इसलिए उन्हें दुनिया का स्मरण नहीं । जैसे कार्बन में ही हीरा बनता है । कच्ची अवस्था में कोयला है और ऊँची अवस्था में हीरा है । वैसे ही ज्ञानी ऊँची अवस्था में पहुँचे हुए होते हैं । अनुभूति के दूसरे छोर पर होते हैं ।
ब्रह्मज्ञान सुनने से जो पुण्य होता है वह चान्द्रायण व्रत करने से नहीं होता । ब्रह्मज्ञानी के दर्शन करने से जो शांति और आनंद मिलता है, पुण्य होता है वह गंगा स्नान से, तीर्थ, व्रत, उपवास से नहीं होता । इसलिए जब तक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष नहीं मिलते तब तक तीर्थ करो, व्रत करो, उपवास करो, परंतु जब ब्रह्मज्ञानी महापुरुष मिल गये तो व्यवहार में से और तीर्थ-व्रतों में से भी समय निकाल कर उन महापुरुषों के दैवी कार्य में लग जाओ क्योंकि वह हजार गुना ज़्यादा फलदायी होता है

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