पूज्य बापूजी के दुर्लभ दर्शन और सुगम ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में से अनमोल सत्संग

मन में नाम तेरा रहे, मुख पे रहे सुगीत। हमको इतना दीजिए, रहे चरण में प्रीत।।

Tuesday, March 23, 2010



सत्संग सुमन पुस्तक से - Satsang Suman pustak se

जिनके जीवन में आत्मशांति प्राप्त करने की रूचि व तत्परता है, वे इस पृथ्वी के देव ही हैं। देव दो प्रकार के माने जाते हैं- एक तो स्वर्ग में रहने वाले और दूसरे धरती पर के देव। इनमें भी धरती पर के देव को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि स्वर्ग के देव तो स्वर्ग के भोग भोगकर अपना पुण्य नष्ट कर रहे हैं जबकि पृथ्वी के देव अपने दान, पुण्य, सेवा, सुमिरन आदि के माध्यम से पाप नष्ट करते हुए हृदयामृत का पान करते हैं। सच्चे सत्संगी मनुष्य को पृथ्वी पर का देव कहा जाता है।
कबीर जी के पास ईश्वर का आदेश आया कि तुम वैकुण्ठ में पधारो। कबीर जी की आँखों में आँसू आ गये। इसलिए नहीं कि अब जाना पड़ता है, मरना पड़ता है.... बल्कि इसलिए कि वहाँ सत्संग नहीं मिलेगा। कबीर जी लिखते हैं-
राम परवाना भेजिया, वाँचत कबीरा रोय।
क्या करूँ तेरी वैकुण्ठ को, जहाँ साध-संगत नहीं होय।।
ईश्वर का साकार दर्शन करने के बाद मोह हो सकता है, काम, क्रोध, कपट, बेईमानी रह सकती है। कैकेयी, मंथरा, शूर्पणखा, दुर्योधन, शकुनि आदि ईश्वर का दर्शन करते थे फिर भी उनमें दुर्गुण मौजूद थे क्योंकि भगवान का दर्शन आत्मरूप से कराने वाले सदगुरूओं का संग उन्होंने नहीं किया।
शरीर की आँखों से भले ही कितना भी दर्शन करो, लेकिन जब तक ज्ञान की आँख नहीं खुलती तब तक आदमी थपेड़े खाता ही रहता है। दर्शन तो अर्जुन ने भी किये थे श्री कृष्ण के, परंतु जब श्रीकृष्ण ने उपदेश देकर कृष्ण तत्त्व का दर्शन कराया तब अर्जुन कहता हैः
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितिऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।
'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गई है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।'
(गीताः 18.73)
शिवजी का दर्शन हो जाय, राम जी का हो जाय या श्री कृष्ण का हो जाय लेकिन जब तक सदगुरू आत्मा-परमात्मा का दर्शन नहीं कराते तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, पाखंड और अहंकार रह सकता है। सदगुरू के तत्त्वज्ञान को पाये बिना इस जीव की, बेचारे की साधना अधूरी ही रह जाती है। तब तक वह मन के ही जगत् में ही रहता है और मन कभी खुश तो कभी नाराज। कभी मन में मजा आया तो कभी नहीं आया। इसलिये कबीर जी ने कहा हैः
भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।
खोजत-खोजत जुग गये, पाव कोस घर आय।।
यह जीव चाहता है तो शांति, मुक्ति और अपने नाथ से मिलना। मृत्यु आकर शरीर छीन ले और जीव अनाथ होकर मर जाय उसके पहले अपने नाथ से मिलना चाहिए, परंतु मन भटका देता है बाहर की, संसार की वासनाओं में। कोई-कोई भाग्यशाली होते हैं वे ही दान-पुण्य करना समझ पाते होंगे। उनसे कोई ऊँचा होता होगा वह सत्संग में आता है और उनसे भी ऊँचाई पर जब कोई बढ़ता है तब वह सत्यस्वरूप आत्मा परमात्मा में पहुँचता, उसे परम शांति मिलती है, जिस परम शांति के आगे, इन्द्र का वैभव भी कुछ नहीं।
आपूर्यमाणचलं प्रतिष्ठं, समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
'जैसे जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं।'
(गीताः 2.70)
जैसे समुद्र में सारी नदियाँ चली जाती हैं फिर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता, सबको समा लेता है, ऐसे ही उस निर्वासनिक पुरूष के पास सब कुछ आ जाय फिर भी वह परम शांति में निमग्न पुरूष ज्यों का त्यों रहता है। ऐसी अवस्था का ध्यान कर अगर साधन-भजन किया जाय तो मनुष्य शीघ्र ही अपनी उस मंजिल पर पहुँच ही जाता है।
निम्न तीन बातें सब लोगों को अपने जीवन में लानी ही चाहिए। ये तीन बातें जो नहीं जानता वह मनुष्य के वेश में पशु ही हैः
पहली बातः मृत्यु कभी भी, कहीं भी हो सकती है, यह बात पक्की मानना चाहिए।
दूसरी बातः बीता हुआ समय पुनः लौटता नहीं है। अतः सत्यस्वरूप ईश्वर को पाने के लिए समय का सदुपयोग करो।
तीसरी बातः अपना लक्ष्य परम शांति यानि परमात्मा होना चाहिए।
यदि आप लक्ष्य बना कर नहीं आते तो क्या सत्संग में पहुँच पाते? अतः पहले लक्ष्य बनाना पड़ता है फिर यात्रा शुरू होती है। भगवान की भक्ति का उच्च लक्ष्य बनाते नहीं है इसलिये हम वर्षों तक भटकते-भटकते अंत में कंगले के कंगले ही रह जाते हैं।
आप पूछेंगेः "महाराज ! कंगले क्यों? भक्ति की तो धन मिला, यश मिला।"
भैया ! यह तो मिला लेकिन मरे तो कंगले ही रह गये। सच्चा धन तो परमात्मा की प्राप्ति है। यह तो बाहर का धन है जो यहीं पड़ा रह जायेगा। इस शरीर को भी कितना ही खिलाओ-पिलाओ, यह भी यहीं रह जायेगा। सच्चा धन तो आत्मधन है। कबीर जी ने ठीक ही कहा हैः
कबीरा यह जग निर्धना, धनवंता नहीं कोई।
धनवंता तेहुँ जानिये, जाको राम नाम धन होई।।
जिसके जीवन में रोम-रोम में रमने वाला परम शांति परम सुख व आनंदस्वरूप रामनाम का धन नहीं है वह धनवान होते हुए भी कंगाल ही तो है।
मनुष्य में इतनी सम्भावनाएँ हैं कि वह भगवान का भी माता-पिता बन सकता है। दशरथ-कौशल्या ने भगवान राम को जन्म दिया और देवकी-वसुदेव भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता बने। मनुष्य में इतनी सम्भावनाएँ हैं लेकिन यदि वह सदगुरू के चरणों में नहीं जाता और सूक्ष्म साधना में रूचि नहीं रखता तो मनुष्य भटकता रहता है।
आज भोगी भोग में भटक रहा है, त्यागी त्याग में भटक रहा है और भक्त बेचारा भावनाओं में भटक रहा है। हालाँकि भोगी से और त्याग के अहंकारी से तो भक्त अच्छा है लेकिन वह भी बेचारा भटक रहा है। इसीलिए नानकजी ने कहाः
संत जना मिल हर जस गाइये।
उच्च कोटि के महापुरूषों के चरणों में बैठकर हरिगुण गाओ, उनसे मार्गदर्शन लेकर चलो। कबीर जी ने कहा हैः
सहजो कारज संसार को, गुरू बिना होत नाहीं।
हरि तो गुरू बिन क्या मिले, समझ ले मन मांहीं।।
संसार का छोटे-से-छोटा कार्य भी सीखने के लिए कोई न कोई तो गुरू चाहिए और फिर बात अगर जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार करने की आती है तो उसमें सदगुरू की आवश्यकता क्यों न होगी भैया ?
मेरे आश्रम में एक महंत रहता है। मुझे एक बार सत्संग के लिए कहीं जाना था। मैंने उस महंत से कहाः "रोटी तुम अपने हाथों से बना लेना, आटा-सामान यहाँ पड़ा है।"
उसने कहाः "ठीक है।"
वह पहले एक सेठ था, बाद में महंत बन गया। तीन दिन के बाद जब मैं कथा करके लौटा तो महंत से पूछाः "कैसा रहा? भोजन बनाया था कि नहीं?"
महंतः "आटा भी खत्म और रोटी एक भी नहीं खाई।"
मैंने पूछाः "क्यों, क्या हुआ?"
महंतः "एक दिन आटा थाल में लिया और पानी डाला तो रबड़ा हो गया। फिर सोचाः थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर बनाऊँ तो बने ही नहीं। फिर सोचाः वैसे भी रोटी बनाते हैं तो आटा ही सिकता है तो क्यों न तपेली में डालकर जरा हलवा बना लें ? हलवा बनाने गया तो आटे में गाँठें ही गाँठें हो गई तो गाय को दे दिया। फिर सोचाः चलो मालपूआ जैसा कुछ बनावें लेकिन स्वामी जी ! कुछ जमा ही नहीं। आटा सब खत्म हो गया और रोटी का एक ग्रास भी नहीं खा पाया।"
जब आटा गूँथने और सब्जी बनाने के लिए भी बेटी को, बहू को किसी न किसी से सीखना पड़ता है तो जीवात्मा का भी यदि परमात्मा का साक्षात्कार करना है तो अवश्य ही सदगुरू से सीखना ही पड़ेगा।
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई।
चाहे विरंचि संकर सम होई।।
गुरू की कृपा के बिना तो भवसागर से नहीं तरा जा सकता। ऐसे महापुरूषों को पाने के लिए भगवान से मन ही मन बातचीत करो किः "प्रभु ! जिंदगी बीती जा रही है, अब तो तेरी भक्ति, तेरा ध्यान और परम शांति का प्रसाद लुटाने वाले किसी सदगुरू की कृपा का दीदार करा दे।"
दुनिया भर की बातें तो तुमने बहुत सुनी, लाला ! बहुत कही.... बहुत कहोगे.... लेकिन अंत में उससे कुछ न मिलेगा, रोते रह जाओगे.... इसलिए कभी कभी उस दुनिया के स्वामी के साथ बातचीत किया करो। कभी रोना नहीं आता है तो इस बात पर रोओ कि पैसों के लिए रोता है, वाह-वाही के लिए रोता है, लेकिन ऐ मेरे पापी मन ! परमात्मा के लिए तुझे रोना ही नहीं आता ? कभी उसको प्यार करते-करते हँसो, फिर देखो कि धीरे-धीरे कैसे तुम्हारी चेतना जागृत होती है। कोई सच्चे सदगुरू ब्रह्मवेत्ता मिल जाएँगे और उनकी सम्प्रेक्षण शक्ति का यदि थोड़ा सा अंश भी मिल गया तो आप लोग जिस तरह यहाँ शिविरों में सहज ही ध्यानमग्न हो जाते हो, ऐसा अनुभव आप अपने घर में भी पूजनकक्ष में कर सकते हो।
आप जितनी अधिक अन्तरंग साधना उपासना करेंगे, अन्दर के देवता का दर्शन करने जाएँगे, उतनी ही आपकी पर्ते हटती जाएँगी। बाहर के देव के दर्शन करने में तो तुम्हें लाईन लगानी पड़ेगी, पर्ची कटवाने पर भी चाहे दर्शन हो या न हो लेकिन इस अंदर के देव के दर्शन एक बार ठीक से हो गये तो फिर बाहर के देव के दर्शन तुमने नहीं किये तो भी चिन्ता की बात नहीं। तुम जहाँ भी हो, वहाँ देव ही देव है।
उस परमात्मा की कृपा पाने के लिए आप छटपटाओ, कभी यत्न करो। जिन्दगी का इतना समय बीता चला जा रहा है, अब कुछ ही शेष बचा है...... डेढ़ साल..... दो साल..... पाँच.... दस..... बीस या तीस साल और अंत में क्या....? यह जीवन बहती गंगा की तरह बह रहा है। उसमें से अपना समय बचाकर काम कर लो भैया.....!
उस सत्यस्वरूप का संग करो। सुबह नींद से उठते ही संकल्प करोः "प्रभु ! तेरा संग कैसे हो?" कभी व्यवहार करते-करते बार-बार सोचो किः "ऐ मेरे परमात्मा ! तू मेरे साथ है लेकिन मैं अभी तक तेरा संग नहीं कर रहा हूँ और मिटने वाली चीजों और मरने वाले दोस्तों के संग में पड़ा हूँ लेकिन हे मेरे अमिट-अमर मालिक ! तेरी दोस्ती का रंग मुझे कब लगेगा ? तू क्या कर दे प्रभु !"
अगर आपने सच्चे हृदय से ऐसी प्रार्थना की है तो वह काम कर लेगी। यदि हृदय से सच्ची प्रार्थना नहीं निकल पाती है तो कम से कम ऐसे-वैसे ही प्रार्थना करो, धीरे-धीरे वह भी सच्ची बन जाएगी।
हल्की कामनाओं को निकालने के लिए अच्छी कामना करनी चाहिए। जैसे काँटे से काँटा निकलता है, वैसे ही हल्की वासना और हल्के कर्मों से अपने दिल को पवित्र करने के लिए अपने दिल को अच्छे कर्म में लगा दो। हल्की आदतें दूर करने के लिए अच्छी आदतें, देवदर्शन की आदतें डाल दो, अच्छा है। संसार आँखों और कानों से भीतर प्रवेश कर अशांति पैदा करता है, इसकी अपेक्षा भगवान के श्रीविग्रह को देखकर उसी को भीतर प्रवेश कराओ, अच्छा है। भगवान के प्यारे संतों के वचन सुनकर उनका चिंतन-मनन करो तो जैसे काँटे से काँटा निकलता है ऐसे ही सत्संग से कुसंग निकलता है। सुदर्शन से कुदर्शन का आकर्षण निवृत्त होता है। यदि कुदर्शन हट गया तो सुदर्शन तुम्हारा स्वभाव हो जाएगा।
भगवान के दर्शन से मोह हो सकता है लेकिन भगवान के सत्संग से मोह दूर होता है। दर्शन से भी सत्संग ऊँचा है। सत्संग मनुष्य को सत्यस्वरूप परमात्मा में प्रतिष्ठित कर शांतस्वरूप परमात्मा का अनुभव कराता है।
अन्तर्आराम अन्तर्सुख अन्तर्ज्योतिरेव च।
सत्संग आन्तरिक आराम, आंतरिक सुख व आंतरिक ज्ञान की ज्योति जगाता है। दीपक की ज्योति गर्म होती है जो वस्तुओं को जलाती है लेकिन भीतर के ज्ञान की ज्योति जब सदगुरू प्रज्वलित कर देते हैं तो वह वस्तुओं को नहीं वरन् पाप ताप को जलाकर अज्ञान और आवरण को मिटाकर जीवन में प्रकाश लाती है, शांति और माधुर्य ले आती है।
जिनके हृदय में वह अचल शांति प्रगट हुई है उनकी आँखों में जगमगाता आनन्द, संतप्त हृदयों को शांति देने का सामर्थ्य, अज्ञान में उलझे हुए जीवों को आत्मज्ञान देने की उनकी शैली अपने-आप में अद्वितीय होती है।
ऐसे पुरूष संसार में जीते हुए लाखों लोगों का अन्तःकरण भगवदाकार बना देते हैं। आप भी ऐसा करने में सक्षम हो सकते हैं बशर्ते आप सत्संग के सहारे दिलमंदिर में जाने का प्रयास करें तो। आपके जीवन में कोई सुखद घटना घटे या दुःखद, आप अपने ही ज्ञान का सहारा लीजिये।
एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगीः
"सेठ जी ! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।"
सेठ जी बोलेः "अच्छा हुआ..... भला हुआ।" उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है !
आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः
"सेठ जी ! सेठ जी ! वह हार मिल गया।"
सेठ जी कहते हैं- "अच्छा हुआ.... भला हुआ।"
वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः "सेठजी ! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं 'अच्छा हुआ.... भला हुआ।' ऐसा क्यों?"
सेठ जीः "एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए ? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।"
अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।
दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।
रिश्तेदार फिर पूछता हैः "लेकिन जब हार मिल गया तब आपने 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' क्यों कहा ?"
सेठ जीः "नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,..... भला है..... मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है।
होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है।।
मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।"
हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।
मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।
संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।
वशिष्ठजी कहते हैः "हे राम जी! सुमेरू पर्वत के शिखर तक गंगा का प्रवाह चले और फिर रूक जाए तो उसके बालू के कण तो शायद गिने जा सके लेकिन इस जीव ने कितने जन्म लिये हैं, कितनी माताओं के गर्भों से बेचारा भटका है उसकी कोई गिनती नहीं। अगर उसे सदगुरू मिल जाएँ, परमात्मा में प्रीति हो जाए और परमपद की प्राप्ति हो जाए तो यह जीव अचल शांति को, परमात्मा को पा सकता है। इस प्रकार यदि हम अपने हृदयमंदिर में पहुँचकर अन्तर्यामी ईश्वर का ज्ञान-प्राप्त कर लें तो फिर माताओं के गर्भों में भटकना नहीं पड़ता।
सुख-शांति को खोजते-खोजते युग बीत गये हैं। तुम घर से उत्साहित होकर निकलते हो कि इधर जाएँगे..... उधर जाएँगे लेकिन जब वापस लौटते हो तो थककर सोचते हो कि कब घर पहुँचे.... कब घर पहुँचे ? हो गया, बहुत हो गया.....
आदमी अपने घर से निकलता है तो बड़े उत्साह से, परंतु लौटता है तो थककर ही लौटता है। कहीं भी जाये लेकिन अन्त में घर आना ही पड़ता है। ऐसे ही जीवात्मा कितने ही शरीर में चला जाय, अंत में जब तक आत्मा-परमात्मारूपी घर में नहीं आएगा तब तक उसे पूर्ण विश्रांति प्राप्त नहीं होगी।
होटल चाहे कितनी भी बढ़िया हो, धर्मशाला में चाहे मुफ्त में रहने को मिले परंतु अपने घर तो पहुँचना ही पड़ता है। ऐसे ही शरीररूपी होटल चाहे कितनी भी बढ़िया मिल जाये अथवा शरीररूपी सराय कितनी भी सुन्दर और सुहावनी मिल जाए फिर भी इस जीवात्मा को अपने परमात्मारूपी घर में पहुँचना ही पड़ेगा। इस जन्म में पहुँचे या दस जन्म के बाद पहुँचे, दस हजार जन्म के बाद पहुँचे या दस लाख जन्म के बाद, चाहे करोड़ों जन्मों के बाद पहुँचे..... पहुँचना तो वहीं पड़ेगा। ॐ......ॐ......ॐ.......

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