गुरु आराधनावली पुस्तक से - Guru Aaradhnavali pustak se
प्रार्थना - Prarthana
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलम गुरो पदम्। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं। द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।
आरती
ज्योत से ज्योत जगाओ....
ज्योत से ज्योत जगाओ सदगुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ।।
मेरा अन्तर तिमिर मिटाओ सदगुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ।।
हे योगेश्वर ! हे परमेश्वर !हे ज्ञानेश्वर ! हे सर्वेश्वर !
निज कृपा बरसाओ सदगुरु ! ज्योत से.....
हम बालक तेरे द्वार पे आये, मंगल दरस दिखाओ सदगुरु ! ज्योत से....
शीश झुकाय करें तेरी आरती, प्रेम सुधा बरसाओ सदगुरु ! ज्योत से....
साची ज्योत जगे जो हृदय में, सोऽहं नाद जगाओ सदगुरु ! ज्योत से....
अन्तर में युग युग से सोई, चितिशक्ति को जगाओ सदगुरु ! ज्योत से....
जीवन में श्रीराम अविनाशी, चरनन शरन लगाओ सदगुरु ! ज्योत से...
स्वामी मोहे ना बिसारियो चाहे लाख लोग मिल जायें।
हम सम तुमको बहुत हैं तुम सम हमको नांहीं।।
दीन दयाल की बेनती सुन हो गरीब नवाज।
जो हम पूत कपूत हैं तो हे पिता तेरी लाज।।
गुरु वंदना
जय सदगुरु देवन देववरं निज भक्तन रक्षण देहधरम्।
परदुःखहरं सुखशांतिकरं निरुपाधि निरामय दिव्य परम्।।1।।
जय काल अबाधित शांति मयं जनपोषक शोषक तापत्रयम्।
भयभंजन देत परम अभयं मनरंजन भाविक भावप्रियम्।।2।।
ममतादिक दोष नशावत हैं। शम आदिक भाव सिखावत हैं।
जग जीवन पाप निवारत हैं। भवसागर पार उतारत हैं।।3।।
कहुँ धर्म बतावत ध्यान कहीं। कहुँ भक्ति सिखावत ज्ञान कहीं।
उपदेशत नेम अरु प्रेम तुम्हीं। करते प्रभु योग अरु क्षेम तुम्हीं।।4।।
मन इन्द्रिय जाही न जान सके। नहीं बुद्धि जिसे पहचान सके।
नहीं शब्द जहाँ पर जाय सके। बिनु सदगुरु कौन लखाय सके।।5।।
नहीं ध्यान न ध्यातृ न ध्येय जहाँ। नहीं ज्ञातृ न ज्ञान न ज्ञेय जहाँ।
नहीं देश न काल न वस्तु तहाँ। बिनु सदगुरु को पहुँचाय वहाँ।।6।।
नहीं रूप न लक्षण ही जिसका। नहीं नाम न धाम कहीं जिसका।
नहीं सत्य असत्य कहाय सके। गुरुदेव ही ताही जनाय सके।।7।।
गुरु कीन कृपा भव त्रास गई। मिट भूख गई छुट प्यास गई।
नहीं काम रहा नहीं कर्म रहा। नहीं मृत्यु रहा नहीं जन्म रहा।।8।।
भग राग गया हट द्वेष गया। अघ चूर्ण भया अणु पूर्ण भया।
नहीं द्वैत रहा सम एक भया। भ्रम भेद मिटा मम तोर गया।।9।।
नहीं मैं नहीं तू नहीं अन्य रहा। गुरु शाश्वत आप अनन्य रहा।
गुरु सेवत ते नर धन्य यहाँ। तिनको नहीं दुःख यहाँ न वहाँ।।10।।
गुरुदेव दया कर दो मुझ पर
गुरुदेव दया कर दो मुझ पर, मुझे अपनी शरण में रहने दो।
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी, अब निर्मल गागर भरने दो।।1।।
तुम्हारी शरण में जो कोई आया, पार हुआ वो एक ही पल में।
इसी दर पे हम भी आये हैं, इस दर पे गुजारा करने दो।।2।।
मुझे ज्ञान के...
सर पे छाया घोर अँधेरा, सूझत नाँही राह कोई।
ये नयन मेरे और ज्योत तेरी, इन नयनों को भी बहने दो।।3।।
मुझे ज्ञान के..
चाहे डुबा दो चाहे तैरा दो मर भी गये तो देंगे दुआएँ।
ये नाव मेरी और हाथ तेरे, मुझे भवसागर से तरने दो।।4।।
मुझे ज्ञान के ....
अजन्मा है अमर आत्मा
व्यर्थ चिंतित हो रहे हो, व्यर्थ डरकर रो रहे हो।
अजन्मा है अमर आत्मा, भय में जीवन खो रहे हो।।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है।
होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है।
'गर भुला दो बोझ कल का,आज तुम क्यों ढो रहे हो?
अजन्मा है...
हुई भूलें-भूलों का फिर, आज पश्चाताप क्यों?
कल् क्या होगा? अनिश्चित है, आज फिर संताप क्यों?
जुट पड़ो कर्त्तव्य में तुम, बाट किसकी जोह रहे हो?
अजन्मा है...
क्या गया, तुम रो पड़े? तुम लाये क्या थे, खो दिया?
है हुआ क्या नष्ट तुमसे, ऐसा क्या था खो दिया?
व्यर्थ ग्लानि से भरा मन, आँसूओं से धो रहे हो।।
अजन्मा है....
ले के खाली हाथ आये, जो लिया यहीं से लिया।
जो लिया नसीब से उसको, जो दिया यहीं का दिया।
जानकर दस्तूर जग का, क्यों परेशां हो रहे हो?
अजन्मा है...
जो तुम्हारा आज है, कल वो ही था किसी और का।
होगा परसों जाने किसका, यह नियम सरकार का।
मग्न ही अपना समझकर, दुःखों को संजो रहे हो।
अजन्मा है.....
जिसको तुम मृत्यु समझते, है वही जीवन तुम्हारा।
हो नियम जग का बदलना,क्या पराया क्या तुम्हारा?
एक क्षण में कंगाल हो, क्षण भर में धन से मोह रहे हो।।
अजन्म है....
मेरा-तेरा, बड़ा छोटा, भेद ये मन से हटा दो।
सब तुम्हारे तुम सभी के, फासले मन से हटा दो।
कितने जन्मों तक करोगे, पाप कर तुम जो रहे हो।
अजन्मा है....
है किराये का मकान, ना तुम हो इसके ना तुम्हारा।
पंच तत्त्वों का बना घर, देह कुछ दिन का सहारा।
इस मकान में हो मुसाफिर, इस कदर क्यों सो रहे हो?
अजन्मा है..
उठो ! अपने आपको, भगवान को अर्पित करो।
अपनी चिंता, शोक और भय, सब उसे अर्पित करो।
है वो ही उत्तम सहारा, क्यों सहारा खो रहे हो?
अजन्मा है....
जब करो जो भी करो, अर्पण करो भगवान को।
सर्व कर दो समर्पण, त्यागकर अभिमान को।
मुक्ति का आनंद अनुभव, सर्वथा क्यों खो रहे हो?
अजन्मा है....
संत मिलन को जाइये
कबीर सोई दिन भला जो दिन साधु मिलाय।
अंक भरै भरि भेंटिये पाप शरीरां जाय।।1।।
कबीर दरशन साधु के बड़े भाग दरशाय।
जो होवै सूली सजा काटै ई टरी जाय।।2।।
दरशन कीजै साधु का दिन में कई कई बार।
आसोजा का मेह ज्यों बहुत करै उपकार।।3।।
कई बार नहीं कर सकै दोय बखत करि लेय।
कबीर साधू दरस ते काल दगा नहीं देय।।4।।
दोय बखत नहीं करि सकै दिन में करु इक बार।
कबीर साधु दरस ते उतरे भौ जल पार।।5।।
दूजै दिन नहीं कर सकै तीजै दिन करू जाय।
कबीर साधू दरस ते मोक्ष मुक्ति फल जाय।।6।।
तीजै चौथे नहीं करै सातैं दिन करु जाय।
या में विलंब न कीजिये कहै कबीर समुझाय।।7।।
सातैं दिन नहीं करि सकै पाख पाख करि लेय।
कहै कबीर सो भक्तजन जनम सुफल करि लेय।।8।।
पाख पाख नहीं करि सकै मास मास करु जाय।
ता में देर न लाइये कहै कबीर समुझाय।।9।।
मात पिता सुत इस्तरी आलस बंधु कानि।
साधु दरस को जब चलै ये अटकावै खानि।।10।।
इन अटकाया ना रहै साधू दरस को जाय।
कबीर सोई संतजन मोक्ष मुक्ति फल पाय।।11।।
साधु चलत रो दीजिये कीजै अति सनमान।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ अपने बित अनुमान।।12।।
तरुवर सरोवर संतजन चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारणे चारों धरिया देह।।13।।
संत मिलन को जाइये तजी मोह माया अभिमान।
ज्यों ज्यों पग आगे धरे कोटि यज्ञ समान।।14।।
तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग।
हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।15।।
चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।
चलाचली के वक्त में भलाभली कर लेह।।16।।
सुखी सुखी हम सब कहें सुखमय जानत नाँही।
सुख स्वरूप आतम अमर जो जाने सुख पाँहि।।17।।
सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।
मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ।।18।।
दुनिया कहे मैं दुरंगी पल में पलटी जाऊँ।
सुख में जो सोये रहे वा को दुःखी बनाऊँ।।19।।
माला श्वासोच्छ्वास की भगत जगत के बीच।
जो फेरे सो गुरुमुखी न फेरे सो नीच।।20।।
अरब खऱब लों धन मिले उदय अस्त लों राज।
तुलसी हरि के भजन बिन सबे नरक को साज।।21।।
साधु सेव जा घर नहीं सतगुरु पूजा नाँही।
सो घर मरघट जानिये भूत बसै तेहि माँहि।।22।।
निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति सों सेव।
जो चाहे आकार को साधू परतछ देव।।23।।
साधू आवत देखि के चरणौ लागौ धाय।
क्या जानौ इस भेष में हरि आपै मिल जाय।।24।।
साधू आवत देख करि हसि हमारी देह।
माथा का ग्रह उतरा नैनन बढ़ा सनेह।।25।
श्रीमद् आद्य शंकराचार्यविरचितम्
गुर्वष्टकम्
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।1।।
यदि शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।2।।
सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।3।।
वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।4।।
जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति अनासक्त हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।5।।
जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इसे सदभाग्य से क्या लाभ?
यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्ज गद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।6।।
दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगान्तरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तिभाव न रखता हो तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?
न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।7।।
जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्रीसुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।8।।
जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का क्या लाभ?
अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्स मालिंगिता कामिनी यामिनीषु।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।9।।
अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्।।10।।
जो यती, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को सम्प्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।
हे प्रभु ! आनन्ददाता
हे प्रभु ! आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।।
हे प्रभु....
निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी ना करें।
ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी ना करें।।
हे प्रभु....
सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें।
दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें।।
हे प्रभु....
जाये हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।
हाथ डालें हम कभी न भूलकर अपकार में।।
हे प्रभु....
मातृभूमि मातृसेवा हो अधिक प्यारी हमें।
देश की सेवा करें निज देश हितकारी बनें।।
हे प्रभु....
कीजिए हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा !
मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा।।
हे प्रभु....
प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें।
प्रेम से हम दुःखीजनों की नित्य ही सेवा करें।।
हे प्रभु ! आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये।